Sunday, December 9, 2007

नमक में ऑयोडीन से बिगड़ रही है सेहत

-सन्‍मय प्रकाश -
आम जनता की सेहत और गाढ़ी कमाई को सरकार ने आयोडीन नमक के नाम पर कंपनियों के सामने न्‍योछावर कर दिया है। नमक के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां जनता को धोखा दे रही हैं। संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय स्वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने पहली बार माना है कि फल, सब्‍जी, दूध, दही, मांस, मछली और पानी में आयोडीन की भरपूर मात्रा है। चिकित्‍सकों का कहना है कि इसके बाद भी नमक में जबरदस्ती आयोडीन खिलाने से हाइपो थाइरायड सहित कई बीमारियां हो रही हैं। लोगों को आयोडीन युक्त नमक नहीं खाना चाहिए।

आयोडीन की अधिकता से बीमारी होने के मामले को सांसद अली अनवर ने राज्‍सभा में सवाल उठाया था। पिछले सप्ताह केंद्रीय स्वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्याण रार्‍यमंत्री पी लक्ष्मी ने जवाब देते हुए कहा है कि आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज में हुए शोध में साबित हुआ है कि खाने की वस्तुओं में आयोडीन पर्याप्त मात्रा में है। आगरा में हाइपो थाइरायड के मरीजों की संत्रया बहुत र्‍यादा है। औसतन प्रत्‍येक घर के एक सदस्य को हाइपो थाइरायड की बीमारी है।

आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभागाध्‍यक्ष डॉ. एके गुप्ता का कहना है कि रिसर्च का दूसरा फेज अब शुरू होगा। अब तक के शोध से पता चला है कि जिन घरों में आयोडीन का प्रयोग होता है, वहां भी घेघा की बीमारी है। उनका कहना है कि आयोडीन के ज्‍यादा सेवन से शरीर में ट्राईआयडोथाइरोनीन, थायरॉक्चसीन हार्मोन बनना कम हो जाता है। जो बीमारी आयोडीन की कमी से होती है वही बीमारी इसकी अधिकता से हो जाती है। वे मरीजों को साधारण नमक या सेंधा नमक खाने की सलाह देते हैं। आगरा का लायर्स कालोनी, शास्‍त्रीपूरम के डावली कालोनी और किरावली के कुछ गांव उदाहरण हैं, आयोडीन की अधिकता से हो रही बीमारियों के। इन कालोनियों में सौ से अधिक परिवार हैं जिनके घर के सभी सदस्यों को थायरॉयड है।

दरअसल, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार के कारण ही हर आम आदमी को आयोडीन नमक खिलाने का अभियान सरकार ने चला रखा है। एक रुपये का नमक दस रुपये में बेचा जा रहा है। केवल पहाड़ी इलाकों में खाद्य पदार्थ में आयोडीन की कमी पाई गई है। आयोडीन नमक केवल इन्‍हीं जगहों के लोगों को खिलाना चाहिए।

संसद में सरकार एक तरफ कहती है कि आयोडीन खाद्य पदार्थ में पूरी मात्रा में मिल रही है, लेकिन दूसरी ओर साधारण नमक पर प्रतिबंध भी लगा रखा है। डॉक्चटरों का कहना है कि नियम का अर्थ यह है कि लोगों को बिना आयोडीन वाला नमक कभी नहीं मिलेगा। आयोडीन की अधिकता से तमाम बीमारियों झेलनी ही होगी। इन बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है सेंधा नमक का प्रयोग।

रासायनशास्‍त्र के प्रोफेसर डॉ.अशोक कुमार का कहना है कि साधारण नमक से आयोडाइर्‍ड नमक बनाने के दौरान रासायनिक प्रक्रिया से गुजारा जाता है। इस दौरान आयरन, कैल्शियम, जिंक आदि बाहर निकाल जाता है। इसके ऊपर पोटाशियम आयोडाइड नामक रसायन डाला जाता है। इसका बड़ा नुकसान है ऑक्सीडाइजिंग एजेंट। इसकी वजह से शरीर में कुछ हार्मोन और एंजाइम आदि भी ऑक्सीडाइजिंग करने की प्रवृत्ति रखते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आयोडीन कितनी मात्रा में मिला है। भूजल में आयोडीन पूरी मात्रा में देश के मैदानी इलाकों में है।

Thursday, December 6, 2007

मथुरा रिफाइनरी का सीवेज यमुना में डालने पर लगा प्रतिबंध

उत्‍तर प्रदेश सरकार ने मथुरा रिफाइनरी का सीवेज यमुना में डालने पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब इसके पानी का सम्‍पूर्ण उपयोग सिंचाई और भूजल रिचार्ज करने में किया जायेगा। प्रमुख सचिव, नगर विकास डीसी लाखा ने मथुरा में आलाधिकारियों की बैठक में यह फैसला सुनाया है। रिफाइनरी को इसके लिये विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) बनाने का निर्देश दिया गया है। ताकि पानी का अन्‍य उपयोग हो सके। इस निर्णय से पर्यावरण प्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई है।

गौरतलब है कि पिछले महीने मछलियों के मरने की घटना के बाद केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी), उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) और जल संस्थान की टीम ने रिफाइनरी की ड्रेन, बरारी में तैलीय पदार्थ की पड़त देखी थी। पहले से ही प्रदूषण की मार झेल रही यमुना को दोहरी मार झेलनी पड़ रही थी। तेल की पड़त की वजह से पानी में ऑक्‍सीजन बनने की प्रक्रिया में रुकावट आ जाती थी। इसकी वजह से नवम्‍बर महीने में कम से कम पांच बार हजारों की संख्‍या में मछलियां मर गई। रिपोर्ट का कहना था कि यमुना में इस तरह का ड्रेन जाना खतरे से खाली नहीं है। इसके बाद प्रमुख सचिव डीसी लाखा ने निर्देश दिया कि रिफाइनरी का सारा पानी (सीवेज) सिंचाई और अंडरग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिये इस्तेमाल किया जाय। लेकिन इससे पहले लगातार कई दिनों तक रिफाइनरी से निकल रहे पानी की गहनता से जांच की जाय। अगर भूजल के रिचार्ज के लिये भी यह खतरनाक है तो किसी दूसरे तरीके से सीवेज का इस्तेमाल किया जाय। यह भी कहा गया है कि अगर पानी की गुणवत्‍ता ठीक नहीं है तो इसे जानवरों के पीने के लिये भी इस्तेमाल में न लाया जाय।

Tuesday, December 4, 2007

खतरे से खाली नहीं है ब्‍लड बैंक का रक्‍त चढ़वाना

बीमारी के दौरान जो रक्‍त आपको चढ़ाया जा रहा है, वह एड्स और हेपेटाइटिस बी तथा सी का कारण बन सकता है। यह जरूरी नहीं है कि ब्‍लड बैंक से मिल रहे रक्‍त में इन दोनों बीमारियों का वायरस बिल्ङुल ही न हों। आपके अपनों का खून भी आपके जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है। विशेषड्टाों के अनुसार एचआईवी इंफेक्‍शन के छह महीने से छह साल तक जांच में वायरस का पता नहीं लगाया जा सकता है। ब्‍लड बैंक में रक्‍तदान करने वाले 50 प्रतिशत से अधिक नशेड़ी होते हैं। वे रुपये के लिये रक्‍तदान करते हैं। केवल पीसीआर जांच में ही वायरस की संख्‍या की जानकारी मिल सकती है। लेकिन यह जांच 99 फीसदी ब्‍लड बैंक में नहीं है।

साइंटिफिक पैथोलॉजी केन्‍द्र के डॉ. अशोक शर्मा का कहना है कि एचआईवी की जांच के अब कई तरीके आ चुके हैं। इसकी सेंसटिविटी र्‍यादा है, लेकिन एक हद तक ही। उनका कहना है कि इंफेक्‍शन के बाद शुरुआती स्तर पर एचआईवी की जांच में वायरस नजर नहीं आ सकता। लेकिन, गौर करने वाली बात यह है कि ब्‍लड में वायरस कितनी संख्‍या में हैं। शुरुआती स्टेज के मरीज का रक्‍त चढ़ाने के काफी समय के बाद मरीज में एड्स के लक्षण दिखेंगे। यही हाल मलेरिया पैरासाइट बीमारी का भी है। इसके भी वायरस रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने पर ही असर दिखाते हैं।

एसएन मेडिकल कॉलेज में भी इस मसले पर चिंता बढ़ गई है। एसएन मेडिकल ङङ्खॉलेज के प्राचार्य डॉ.एनसी प्रजापति का कहना है कि आम तौर पर एचआईवी पॉजिटिव होने की 83 प्रतिशत जानकारी किसी अन्‍य बीमारी के दौरान ही पकड़ में आती है। रक्‍त चढ़ाने से पहले पैकेट पर एचआईवी और हेपेटाइटिस बी व सी निगेटिव लिखा हुआ होना जरूर देख लेना चाहिए। इस वक्‍त एकमात्र यही विकल्प है। मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के डॉ. बलबीर सिंह का कहना है कि एचआईवी वायरस के संङ्रमण के छह महीने से छह साल तक आदमी बिलङुल सामान्‍य स्थिति में रहता है। ऐसी स्थिति चालीस से पचास प्रतिशत लोगों में देखने को मिली है। मात्र पंद्रह प्रतिशत लोगों रोग प्रतिरोधक क्षमता में भारी कमी संक्रमण के एक साल बाद ही दिखने लगता है। यह संबंधित त्‍यक्ति में पहले की रोग प्रतिरोधक क्षमता, खान-पान और जीवन स्तर पर निर्भर करता है।
हेपेटाइटिस बी और सी उतनी ही खतरनाक है जितना एड्स। कई बार इंफेक्‍शन होने के बाद पीलिया, पेट में दर्द जी मचलाना लक्षण होते हैं और हल्‍के इलाज के बाद मरीज ठीक हो जाता है। इस दौरान कई बार पता नहीं चलता है कि हेपेटाइटिस बी या सी का वायरस शरीर में मौजूद है। लेकिन सात-आठ वर्षों बाद फिर पीलिया शुरू हो जाता है और पेट में पानी भर जाता है। ऐसी स्थिति में उसे बचाना खतरनाक होता है। यही स्थिति कुछ अन्‍य बीमारियों में भी होती है। एचआईवी का पता लगाने के लिये सीडी फोर और पीसीआर की जांच में कम से कम चार हजार रुपये का खर्चा आता है। यदि इन बीमारियों के प्रारंभिक लक्षण वाले मरीजों का खून किसी को चढ़ा दिया जाए तो उसे भी यह बीमारी होनी ही है।

Thursday, November 22, 2007

कीटनाशकयुक्‍त गेंहू खाकर आठ मोर मरे

पछता रहे हैं फतेहपुर सीकरी के ग्रामीण
कीटनाशकों के प्रयोग का दुष्‍प्रभाव आम जीवन में हम शायद ही महसूस कर पाते हैं। लेकिन फतेहपुर सीकरी के कराही गांववासी अब पछता रहे हैं। दरअसल, यहां के खेतों में बोए गए कीटनाशकयुक्‍त गेहूं, मोरों का काल बन गया। 21 नवम्‍बर को खेत में आठ मरे हुये मोर को देखकर ग्रामीण अवाक रह गये। चोंच में पड़े गेंहूं के दाने को देखकर यह समझते देर न लगी कि खेतों कीटनाशकों की वजह से राष्‍ट्रीय पक्षी की मौत हुई।

कीटनाशकों का धड़ल्‍ले से प्रयोग करने के आदी किसानों को अब इस गांव में मोर देखने को नहीं मिलेंगे। देश में छोटी चिडि‍़यां कीटनाशकयुक्‍त बीज खाकर लगातार मर रही हैं। लेकिन अबतक इनपर ध्‍यान नहीं दिया जाता है, क्‍योंकि मरते ही कुत्‍ते व अन्‍य जानवर उठा ले जाते हैं। लेकिन प्रकॄति के सौंदर्य को प्रदर्शित करने वाले मोर के एकसाथ काफी संख्‍या में मरने की घटना ने लोगों को कीटनाशकों के असर का अहसास दिलाया है। मोरों को कुत्‍ते नोच रहे थे। ग्रामीण बनवारी ने बताया कि‍ बुधवार सुबह जब वह खेत की ओर गया तो, खेत में सात-आठ मोर मरे हुए थे। कुछ ही देर में अन्‍य ग्रामीणों से सूचना मिली कि‍ गांव में कई जगह मोर मरे पड़े हैं। इन्‍हें देखकर ग्रामीण परेशान हो उठे। ग्रामीणों का कहना है कि कुछ दिन पहले ही खेतों में गेहूं की बुवाई हुई है। खेतों में बोए गए गेहूं को कीटनाशकों से उपचारित कि‍या गया था। इसी गेहूं के खाने से मोरों की मौत हुई है।

गौरतलब है कि कीटनाशकों की वजह से खेती में मदद करने वाले कई जीव नष्‍ट हो रहे हैं। मेढ़क प्रतिदिन अपने वजन का कीड़ा खा जाता है। लेकिन कीटनाशकों की वजह से अब इसकी टर्रराहट भी जल्‍दी सुनने को नहीं मिल रही है। अगर देश की किसान जैविक खादों की ओर न लौटे तो न जानें कितने पक्षियों और जीवों का अस्तित्‍व खतरे में पड़ जायेगा। लोग तो खुद पर इसका दुष्‍प्रभाव भयंकर बीमारियों से भुगत ही रहे हैं।
(हिन्‍दुस्‍तान से साभार)

यमुना में बह रहा है मथुरा रिफाइनरी का तेल

केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का खुलासा

यमुना में मथुरा रिफाइनरी का पैट्रोलियम बेस्ड हाइड्रोकार्बन (तेल) बह रहा है। इससे नदी के पानी पर तैलीय पदार्थ की परत बन गई है। उद्योगों और शहरों का प्रदूषण झेल रही यमुना में अब रिफाइनरी का तेल आने से जलीय जीवों पर खतरा उत्‍पन्‍न हो गया है। पांच नवम्‍बर से 17 नवम्‍बर तक यमुना में चार बार मछलियां मर चुकी हैं। केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की संयुक्ति टीम ने यह खुलासा किया है।


यमुना के पानी को शुद्ध कर शहर में पेयजल की आपूर्ति की जाती है। पैट्रोलियम बेस्‍ड हाइड्रोकार्बन युक्‍त पानी के सेवन से कैंसर की प्रबल संभावना होती है। अगर मथुरा रिफाइनरी में लापरवाही का दौर चलता रहा तो लोगों पर भी जबरदस्त दूरगामी परिणाम देखने को मिलेगा। सीपीसीबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मथुरा रिफाइनरी की ड्रेन बरारी में तैलीय पदार्थ का उत्‍तप्रवाह है। यह सीधे यमुना में जा रही है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस मामले पर मथुरा रिफाइनरी को कड़ी चेतावनी दी है। बोर्ड ने कहा है कि नाले का पानी रिफाइनरी से आता है। ड्रेन में मानक से अधिक तेल की मात्रा जलीय जीवों के लिए खतरनाक है। दूसरी ओर मंडलायुक्‍त सीताराम मीना ने केन्‍द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के सचिव से दिल्ली और हरियाणा में प्रदूषणकारी इकाइयों पर लगाम लगाने की गुहार लगाई है। उन्‍होंने कहा है कि कार्तिक मास में यमुना की दुर्दशा से लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही है। मंडलायुक्‍त ने केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्‍यक्ष को भी पत्र भेजकर आवश्यक कदम उठाने को कहा है।

गौरतलब है कि वर्ष 2001 में अमेरिका के ब्‍लू यमुना फाउंडेशन के अध्‍यक्ष सुविजॉय दत्‍ता ने नदी में इस पैट्रोलियम पदार्थ के होने की बात कही थी। नाव से यमुना पार करते समय उन्‍होंने ङैलाश के पास जमीन से बुलबुले उठते हुए देखा था। यह बुलबुला पानी पर तैतीय परत बना रहा था। पानी के नमूने की जांच अमेरिका में हुई थी। लेकिन उस वक्‍त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और मथुरा रिफाइनरी ने इसे खारिज कर दिया था। श्री राय का कहना था कि जमीन के रास्ते नालों से होता हुआ यह पदार्थ यमुना में जा रहा है। कहीं न कहीं से रिफाइनरी का तेल रिस रहा है।

Monday, October 29, 2007

आगरा का भूमिगत जल पीने लायक नहीं

देश के सर्वाधिक जल प्रदूषित चार शहरों में आगरा भी शामिल है। ताजनगरी का भूमिगत जल पीने योय नहीं है। यह चिंताजनक स्तर तक हानिकारक रसायन युक्त तथा कई बीमारियों को दावत देने वाला है। शहर की अव्यवस्थित सीवरेज प्रणाली व उद्योगों से निकलने वाले रसायनिक प्रवाह का समुचित निस्तारण न होना इसका प्रमुख कारण है। आगरा, चेन्‍नई, वियजवाड़ा और कायंबटूर में क्चलोराइड की मात्रा प्रतिलीटर एक हजार मिलीग्राम है। केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कुछ महीने पहले जारी रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है।
आगरा समेत देशभर के प्रमुख शहरों को चिह्नि‍त कर भूजल गुणवत्‍ता आकलन 2006-2007 नामक राष्ट्रव्यापी अध्‍ययन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इन शहरों में स्थापित हैंडपंप, ट्यूबवैल व बोरिंग आदि से एकत्र कर गए नमूनों के प्रयोगशाला अध्‍ययन के बाद केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानि‍कों ने जो रिपोर्ट तैयार की है, वह ताजनगरी समेत कई अन्‍य शहरों में इस्तेमाल कि‍ए जा रहे भूजल की गणवत्‍ता पर सवाल खड़े करती है। यहां से लिए गए भूजल के नमूनों में क्लोराइड, नाइट्रेट व फ्लोराइड की मात्रा नुकसानदायक स्तर तक पहुंच चुकी है। रिपोर्ट में इसके लिए आगरा की अव्‍यवस्थित सीवरेज प्रणाली को काफी हद तक जिम्‍मेदार माना गया है। इसके अनुसार, महानगर में हर रोज औसतन करीब दो सौ मिलियन लीटर सीवेज खुले में बहा दिया जाता है, जो रिसकर जमीन के नीचे पहुंचकर भूजल को प्रदूषित कर देता है। शहर व आसपास स्थित औद्योगिक इकाइयों से बगैर शोधित किए निकलने वाला रासायनिक प्रवाह भी अंततः रिसकर जमीन के नीचे चला जाता है। रासायनों से फ्लोरोसिस व मानसिक बीमारी आदि होने की संभावना होती है।
रिपोर्ट के निष्‍कर्षो पर यकीन करें तो ताजनगरी के अधिकांश क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा भूमिगत जल पीने के लायक नहीं है। प्रयोगशाला परीक्षणों ने भी इस बात की पुष्टि की है। केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा इकट्ठे किए गए 50 प्रतिशत से अधिक नमूनों में क्‍लोलोराइड की मात्रा बहुत र्‍यादा है। आगरा के 82 प्रतिशत से अधिक नमूनों में क्‍लोराइड की मात्रा भी अत्‍यधिक है। इसी तरह नाइट्रेट की मात्रा भी हानिकारक सीमा से अधिक पाई गई। रिपोर्ट में उजागर हुए आंकड़ों के मुताबिक, आगरा के भूमिगत जल के कुल नमूनों में से 95 प्रतिशत से अधिक में कुल घुलनशील रसायनों की मात्रा जरूरत से र्‍यादा है, जो जन स्‍वास्‍थ्‍य की दृष्टि से नुकसानदायक है। यह कई जानलेवा बीमारियों को दावत देने वाला है। जिन अन्‍य प्रमुख शहरों की रिपोर्ट तैयार की जा चुकी है। मेरठ और लखनऊ में पानी का स्तर मानक के अनुसार बताया गया है।

Sunday, October 28, 2007

राष्‍ट्र संघ का अहिंसा प्रेम!

-वैद्यनाथ प्रसाद सिन्‍हा ..
पहली-पहली बार संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के तत्‍वावधान में गांधी जयंती पर 'अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्‍य पूर्णत: स्‍पष्‍ट नहीं हो सका। राष्‍ट्र संघ के महासचिव वान की मून या भारत की आमंत्रित प्रतिनिधि सोनिया गांधी या किसी अन्‍य के भाषणों से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ, कि किसी ने अपने जीवन में या देश में अहिंसा के रास्‍ते पर चलने का संकल्‍प किया हो। श्री मून के यह चिंता व्‍यक्‍त करने का कोई अर्थ नहीं है कि, परमाणु अस्‍त्र अप्रसार की समस्‍या पर अन्‍य देशों से कोई सार्थक सहयोग नहीं मिल रहा। यह तो अरण्‍य रोदन के जैसा प्रतीत होता है।

भारत की सोनिया गांधी ने इस बात पर चिंता व्‍यक्‍त की कि आतंकवाद से निपटने और परमाणु अस्‍त्र प्रसार पर अंकुश में अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय सामूहिक रूप में विफल रहा है और आतंकवाद पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है। उन्‍होंने विरोधियों को मीठी और तर्कपूर्ण बातों से समझाने-बुझाने की वकालत की। जबकि अपने ही देश में 'स्‍पेशल एकनामिक जोन' के नाम पर गरीबों से जबर्दस्‍ती जमीन छीने जाने का विरोध होता है, तो समझाने के बदले, गोलियों से भूना जाता है। तो 'विश्‍व अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्‍य क्‍या यही था, कि विरोधियों, दुश्‍मनों और आतंकवादियों को बताया जाय, कि तुमलोग अहिंसा के रास्‍ते पर चलो, क्‍योंकि यह विश्‍व-विख्‍यात महात्‍मा गांधी का उपदेश है। अन्‍यथा तुम्‍हें तोपों से उड़ा दिया जायेगा ? फिर अहिंसा दिवस मनाने का भला क्‍या अर्थ है?

अहिंसा शब्‍द जितना सरल लगता है, उसका अर्थ उतना ही गहन और गूढ़ है। मनुष्‍य मात्र का शत्रु भयानक हत्‍यारा ‘अंगुलिमाल’ के सम्‍मुख महात्‍मा बुद्ध जब निर्भीक भाव से आये, तो उन्‍होंने यही नहीं कहा, कि ‘अहिंसा परमो धर्म’, जबकि इस सनातन उक्ति में गलत कुछ भी नहीं है। उसे पापी भी नहीं कहा। जिन्‍होंने उसे अपनी मर्मस्‍पर्शी मीठी युक्तियों से प्रभावित और प्रेरित करके निरीहों की हत्‍या की निरुपयोगिता और व्‍यर्थता का बोध कराया। अंगुलिमाल की चिंतनधारा तत्‍क्षण बदल गयी। जीवन भर करुणा, प्रेम, दया, क्षमा का उपदेश देने वाले महात्‍मा बुद्ध ने उससे ‘अहिंसा’ अपनाने की बात नहीं कही। तिब्‍बती बौद्ध लोग याक (एक पालतू पशु) का थुथना कस कर बांध देते हैं और जब वह दम घुंटकर मर जाता है, तो वे उसका मांस बड़े ही प्रेम से खाते हैं। वे उसे हिंसा नहीं मानते, क्‍योंकि याक से उनकी दुश्‍मनी नहीं है, बल्कि प्रेम है। हत्‍या तो दुश्‍मनों की हुआ करती है। वे लोग प्रेम, करुणा, दया, क्षमा के सागर महात्‍मा बुद्ध के अनुयायी हैं।

असाध्‍य रोगों से पीडि़त छटपटाती उस बछिया का उल्‍लेख भी सुमीचीन होगा, जिसकी पीड़ा से द्रवित महात्‍मा गांधी ने उसे जहर की सुई से मौत की मीठी नींद सुलाने की अनुमति दी थी। फिर यह अपनी-अपनी दृष्टियों पर निर्भर है कि कौन किसको हिंसा मानता है, और कौन किसको अहिंसा मानता है। ‘अहिंसा’ एक नकारात्‍मक बोध का शब्‍द है, किसी सकारात्‍मक बोध का नहीं। इसके भिन्‍न-भिन्‍न अर्थ किस-किस युग में कहां-कहां तक व्‍याप्‍त हो सकते हैं, कहना कठिन है। अनेके हिंसकों को पता भी नहीं कि वे हिंसक भी हैं, या कहीं कोई हिंसा भी हो रही है। चूंकि हिंसा का अर्थ सिर्फ हत्‍या नहीं है, बल्कि जीवों को अनेक प्रकारों से पीडि़त-प्रताडि़त करना भी है, कष्‍ट देना भी है। इसलिए अहिंसा का भी कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक प्रकार भी निर्धारित नहीं हो सकता। महात्‍मा गांधी ने ‘अहिंसा’ शब्‍द की व्‍यापकता को देखते हुए, माना कि वही अहिंसा साधनीय है, जिसकी उपयुक्‍तता अनुभव जन्‍य सत्‍य से सिद्ध हो चुकी है। इसलिए उन्‍होंने ‘सत्‍य और अहिंसा’ का एक साथ प्रयोग किया। परंतु राष्‍ट्र संघ ने सत्‍य की उपेक्षा की और मात्र ‘अहिंसा दिवस’ मनाया।

यह विश्‍व विदित है कि अमेरिका ने अपने पिठ्ठू देशों के साथ मिलकर इराक पर भयानक हमला किया, जबकि जांच में वहां परमाणु अस्‍त्र होने का कोई सबूत नहीं मिला और राष्‍ट्र संघ सुरक्षा परिषद ने हमले के लिए कोई अनुमति नहीं दी थी। जिनके हाथ-रक्‍त रंजित हैं, वे देश-दुनिया को बरगलाने के लिए ‘अहिंसा’ का नकली राग अलापते हैं। कहते हैं, कि मिस्‍टर बुश के खानदान की ओसामा बिन लादेन से ‘दांत कटी रोटी’ वाली दोस्‍ती थी। साझा व्‍यवसाय चलता था। फिर क्‍या बात हुई, कि एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन बन बैठे? किसी से विश्‍वासघात करना भी हिंसा है। हिंसा से उपजी ‘प्रतिहिंसक’ नहीं, बल्कि स्‍वयं प्रथम ‘हिंसक’ बताता है।

अति उन्‍नत मशीनें मानवीय बुद्धि से नि:सृत विज्ञान के बड़े अनोखे चमत्‍कार हैं, जो मानव जाति को श्रम से निवृत्ति दिलाकर सुख और आनंद के चरम उत्‍कर्ष पर पहुंचाने की क्षमता रखती हैं। परंतु मानव स्‍वार्थ के वशीभूत होकर उनका दुरुपयोग करता है। उन्‍हीं मशीनों से बहुत बड़े समाज का शोषण और उत्‍पीड़न करता है। बेरोजगारी फैलाकर आदमी को गरीबी, भूखमरी और आत्‍महत्‍या के दानव के हाथों में ला पटकता है। मोहम्‍मद साहब या ईसा मसीह या गौतम बुद्ध या महात्‍मा महावीर को जो ज्ञान प्राप्‍त हुआ, वह सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए हुआ। उसी प्रकार वैज्ञानिकों की बुद्धि को भी ईश्‍वरीय प्रेरणा से भिन्‍न-भिन्‍न आविष्‍कारों की झलक आती है। उनके आविष्‍कार सम्‍पूर्ण मानव जाति के हित के लिए हैं। परंतु आज ‘अयम् निज: परोवेति’ की क्षुद्रता वाले चालबाज और धनसम्‍पत्ति के स्‍वामी, इन आविष्‍कारों को पूंजी के हथियारों से लूट लेते हैं, और स्‍वलाभ के लिए मशीनों को परोक्ष हिंसा का साधन बना लेते हैं।

यही हाल अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों और विशेष कृषि क्षेत्रों का है। किसानों से जमीन औने-पौने भाव में छीन कर विस्‍थापित और पीडि़त किया जा रहा है। कृषि भूमि से उन्‍हें वंचित करना हिंसा है। उस उत्‍पीड़न और हिंसा के निस्‍तार के लिए खुले मन से गरीबों-असहायों के हित में कोई वास्‍तविक अहिंसा दिवस क्‍यों नहीं मनाया जाता?

Tuesday, October 16, 2007

आत्‍महत्‍या पर भी दिल नहीं दहलता

-स्‍वतंत्र मिश्र...
गुलबर्ग, कर्नाटक में फरवरी माह में छह बेरोजगार नवयुवकों ने एक समारोह के दौरान आत्‍महत्‍या की कोशिश की। स्‍वर्ण ग्रामोदय परियोजना का उद्घाटन करने के लिए कर्नाटक के श्रीनिवास सरदागी यहां पहुंचे हुए थे। 24 फरवरी को राष्‍ट्रपति कलाम के कार्यक्रम में पहुंचते ही इंड्रस्ट्रियल ट्रेनिंग कोर्स (आईटीआई) कर चुके छह युवक नौकरी की मांग करते हुए जमकर नारेबाजी की। वे चाह रहे थे कि राष्‍ट्रपति उनकी पीड़ा सुनें और एक बेरोजगार युवक की बेचैनी महसूस करें। इस वक्‍त तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री एचडी कुमारस्‍वामी भी गांव में मौजूद थे। अपनी बात राष्‍ट्रपति तक न रख पाने के बाद युवकों ने वही जहर पी लिया। बाद में डॉक्‍टरों ने उन्‍हें बचा लिया।

इस खबर को मीडिया ने तब्‍बजो नहीं दी। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया ने चुप्‍पी साध लेने की पूर्ववत योजना पर डटे रहना उचित समझा। प्रिंट मीडिया ने भी इस खबर को सार-संक्षेप में ही जगह दी। दरअसल, आत्‍महत्‍या अपने आप में गंभीर मसला है। कायदे से कहा जाय तो आत्‍महत्‍या एक जुर्म है। यहां सवाल उठता है कि आखिर देश की फिजां में क्‍या घुल गया है कि देश के बच्‍चे, युवक, युवतियां और किसान मरने को मजबूर हो रहे हैं? दिक्‍कतों से जूझते-जूझते रास्‍ता नहीं खोज पाने की स्थिति में ऐसा करने की बात तो समझ में आती है। परंतु आत्‍महत्‍या अगर योजनाबद्ध तरीके से या यूं कहें कि विरोध के तौर पर प्रकट होने लगे, तो इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है। आत्‍महत्‍या करने वाले व्‍यक्ति को संवेदना के स्‍तर पर अकेलापन महसूस होने लगता है। उसे ढाढस बंधाने वाला कोई कंधा नहीं हासिल होता है। समाज में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक दिक्‍कतों के बढ़ने से आदमी अकेला तो निश्चित तौर पर होता चला जा रहा है। साथ ही देश में राजनीतिक स्‍तर पर भी संवेदनशीलता में भारी गिरावट आयी है। अन्‍यथा 50 या 60 के दशक में इतनी बड़ी घटना होती तो कम से कम राष्‍ट्रीय बहस का मुद्दा बन ही जाती। इसे एक-दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। याद हो, लाल बहादुर शास्‍त्री के रेल मंत्रित्‍व काल में ट्रेन दुर्घटना हुई थी। उस हादसे में लोगों की जानें गयी थी। उन्‍होंने घटना की जिम्‍मेवारी लेते हुए इस्‍तीफा दे दिया था। दरअसल उस समय राजनीति का मतलब समाज सेवा हुआ करता था।

दूसरे उदाहरण से आप सास्‍कृतिक बुनावटों के आधार पर तात्‍कालिक समाज को समझ सकेंगे। हिन्‍दी के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्‍चन अपनी अमर कृति मधुशाला का पाठ मंचों पर अक्‍सर किया करते थे। इसी सिलसिले में वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे। रास्‍ते में ट्रेन रुकी तो एक युवक दौड़ता हुआ उनसे मिलने आया। दूसरे दिन बच्‍चन जी को पता चला कि उस युवक ने आत्‍महत्‍या कर ली। आत्‍महत्‍या करने वाला युवक प्रेम में हारा हुआ था। बच्‍चन की कविता में उसे अपनी पीड़ा का स्‍वर सुनाई पड़ा था। आपको मालूम हो कि इस घटना के बाद बच्‍चन ने लंबे समय तक मंच पर कविता पाठ नहीं किया। आज राजनीति अधिकांश लोगों के लए सत्‍ता हासिल करने का एक औजार मात्र है। अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री आम जनता को यह सलाह दे बैठते हैं - 'महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। इसलिए देश के लोगों को कठिनाइयों के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए।' दरअसल, आत्‍महत्‍या जैसे गंभीर मसले की पड़ताल समाज में हो रहे चहुमुखी क्षरण के आधार पर की जानी हिचाए, क्‍योंकि सामान्‍य रूप से कोई मरना नहीं चाहता है। भारत में रोजगारहीनता से पीडि़त युवक और युवतियों को भी इससे निकल पाने का कोई रास्‍ता नहीं दिख रहा है। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं पर तो देश को उद्वेलित हो उठना चाहिए था, लेकिन ऐसी कारूणिक घटनाओं पर राष्‍ट्रीय बहस तक भी आयोजित नहीं हो पाती है। सकल विकास दर और सूचकांक में ऐतिहासिक उछाल हासिल करने की बातें, यहां झूठी और फरेबी लगने लगती है। देश के विकास का मतलब कुछ लोगों का विकास कतई नहीं हो सकता है। देश के विकास का मतलब तो यह होना चाहिए कि विकास की धारा समाज के अंतिम श्रेणी के लोगों तक पहुंचे। नई आर्थिक उदारीकरण नीति के लागू होने के बाद आत्‍महत्‍या जैसी घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक लाख से ज्‍यादा किसान आत्‍महत्‍या का रास्‍ता चुनने को मजबूर हुआ है। दुख की बात तो यह है कि देश के कृषि मंत्री किसानों को आय का दूसरा रास्‍ता ढूंढने की सलाह दे रहे हैं। ऐसी संवेदनहीन परिस्थितियों से समाज को बचाने के लिए पूरे नागरिक समाज को सोचने को मजबूर होना पड़ेगा।

Sunday, October 14, 2007

पानी की लड़ाई में पिस रहे प्रवासी परिंदे

केवलादेव नेशनल पार्क में सूखा ..
कीठम में पानी जरूरत से ज्‍यादा..

पानी की लड़ाई में प्रवासी परिंदे पिस रहे हैं। भरतपुर के केवलादेव नेशनल पार्क में सूखा पड़ गया है। राजस्‍थान के करौली में पांचना डैम बनने के बाद यह समस्‍या आई है। दूसरी ओर आगरा के कीठम पक्षी विहार में जरूरत से ज्‍यादा पानी जमा है। दोनों ठिकाने पक्षियों के अनुकूल नहीं हैं। ठंड के साथ ही हजारों की तादाद में एशियाई परिंदों के आगमन का समय अब शुरू होने वाला है। भरतपुर में पानी न मिलने पर वे कीठम के सूर सरोवर पहुंचते हैं। लेकिन यहां वन विभाग और सिंचाई विभाग के बीच चल रही तनातनी ने पक्षियों के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी है। कम पानी में रहने वाले (वैडर) पक्षी को कीठम में भोजन की मुसीबत उत्‍पन्‍न हो गई है।

पिछले
वर्ष मात्र 80 हजार परिंदों ने कीठम पक्षी विहार में ठिकाना बनाया था। यहां 135 प्रजाति के एशियाई पक्षी प्रवास करते हैं। इस बार भी पर्यावरणविद् निराश दिख रहे हैं। सूर सरोवर में सिंचाई विभाग पानी कम करने को तैयार नहीं है। दरअसल, सरोवर में दिल्‍ली के ओखला नहर से पानी आता है और कीठम से मथुरा रिफाइनरी और किसानों को भी पानी आपूर्ति की जाती है। पक्षी विहार की चिंता किए बगैर हमेशा पानी बनाए रखने के लिए सिंचाई विभाग सरोवर को पानी से भरा रखते हैं। वन विभाग के रेंज ऑफिसर आरबी उत्‍तम के अनुसार इस वक्‍त यहां 22 फुट पानी जमा है। जबकि पक्षियों के रहने के लिहाज से 15 फुट से ज्‍यादा पानी नहीं रहना चाहिए। इससे सरोवर के किनारे के हिस्‍से में दलदल बना रहता है। इसी जगह पर ज्‍यादातर कीड़े-मकोड़े, घोंघे, सीप, झिंगुर, छोटी मछलियां, घास आदि मिलते हैं। परिंदे इसे खाकर जिंदा रहते हैं। यह ठीक उसी प्रकार होता है जिस तरह खेतों में हल जोतते समय किसान के पीछे-पीछे पक्षी घूमते रहते हैं। वे यहां कीड़े खाते हैं।

सरोवर में ज्‍यादा पानी रहने से परिंदों के पर भीग जाते हैं। वन विभाग ने पर सुखाने के लिए हैपिटैट (पानी में बना स्‍थल क्षेत्र) बना रखा है। लेकिन सिंचाई विभाग ने सूर सरोवर में इतना पानी डाल दिया है कि हैपिटैट भी डूब चुके हैं। किनारे का घास भी पानी में चला गया है। 1991 में इस विहार को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया, लेकिन यह अब तक कागजों पर ही संरक्षित है। बर्मा, पाकिस्‍तान, चीन, साइबेरिया आदि देशों से आने वाले पक्षियों को काफी दिक्‍कतें होती है। फिलहाल करीब 20 हजार देशी पक्षियों ने ठिकाना बनाया हुआ है। पिछले वर्ष करीब छह सौ विदेशी सै‍लानियों ने कीठम में पक्षियों को देखने के लिए भ्रमण किया था।

दूसरी ओर राजस्‍थान के करौली जिले में पांचना डैम बनने के बाद यहां के निवासी पानी छोड़ने नहीं देते हैं। इससे भरतपुर का केवलादेव नेशनल पार्क केवल मानसून पर निर्भर रह गया है। लेकिन यहां बारिश इस लायक नहीं होती है कि प‍क्षी विहार में पानी जमा हो और प्रवासी परिंदों का ठिकाना बन सके।

Saturday, October 6, 2007

तटबंधों के सहारे बाढ़ रोकने की आत्मघाती कोशिश

तटबंधों के सहारे उत्‍तर बिहार की बाढ़ को नियंत्रित करने की कोशिश कितनी अवैज्ञानिक और आत्‍मघाती है, यह इस बार साबित हो गया है। हिमालय से आने वाली नदियां अगर सिर्फ पानी लातीं तो शायद ये तटबंध कारगर हो जाते। लेकिन ये नदियां पानी के साथ गाद के रूप में भारी मात्रा में मिट्टी लाती हैं। जब नदियों के किनारे तटबंध नहीं होते थे तो बाढ़ का पानी धीरे-धीरे खेतों में फैल जाता था और वहां उपजाऊ मिट्टी बिछा देता था। बिना किसी रासायनिक खाद के फसल लहलहा जाती थी। इसलिए यहां के खेतों को 'सोनवर्षा' कहा जाता था।
आज भी आपको उत्‍तर बिहार में अनगिनत गांव मिलेंगे जिनका नाम सोनवर्षा है। तब बाढ़ आतंक का पर्याय नहीं, बल्कि सुख-समृद्धि का कारक होती थी। इसीलिए बहुत से इलाकों में कहावत चलती थी- बाढ़े जीली, सुखाड़े मरली। तब बाढ़ से निपटने के लिए किसी बड़े आपदा प्रबंधन की जरूरत नहीं थी। लेकिन तटबंधों के निर्माण के बाद से नदियों का पेट गाद (मिट्टी) से भरता गया और इनकी जल संवहन की क्षमता घटती गई। इसलिए तटबंधों को आप चाहे जितना ऊंचा और मजबूत करते जाएं, उनका टूटना निश्चित है। नदियों की उड़ाही का काम बड़े पैमाने पर शुरू होना चाहिए। साथ ही सड़कों, रेल लाइनों, नहरों आदि के कारण जहां-जहां जल का अवरोध होता है, वहां-वहां पर्याप्‍त संख्‍या में पुलों, साइफनों आदि का निर्माण करना जरूरी है।
उत्‍तर बिहार के में हजारों साल से उन्‍नत सभ्‍यता रही है। बाढ़ ने कभी यहां की सभ्‍यता को नष्‍ट नहीं किया। लोगों को नदियों की प्रकृति का ज्ञान था, वे उसके साथ तालमेल बिठाकर चलते थे। नदियां जब धारा बदलती थीं तो लोग उसके अनुसार अपने निवास स्‍थान बदल लेते थे, क्‍योंकि उन्‍हें पता होता था कि नदी कितने दिनों पर किस दिशा में स्‍थान बदलेगी। नदियों का जल प्रवाह सुगम बनाने के लिए हजारों लोग मिलकर उसके पेटी की खुदाई भी करते थे, जल निकास के नए रास्‍ते भी बनाते थे। तटबंधों के निर्माण की अवैज्ञानिक प्रक्रिया ने आपदा का पहाड़ खड़ा कर दिया है। इसलिए दीर्घकालिक उपायों के साथ-साथ हमें आपदा प्रबंधन की ठोस व्‍यवस्‍था तो करनी ही पड़ेगी।
- अनिल प्रकाश

Thursday, October 4, 2007

गाँव-मोहल्‍लों में दिखेगी विधानसभा में विधायकों की कारगुजारी

संसद और विधान सभाएं हंगामे और राजनीतिक जोर-आजमाइश का केन्‍द्र बनती जा रही है। इस बीच उत्‍तर प्रदेश के विधानसभा अध्‍यक्ष सुखदेव राजभर ने ऐतिहासिक फैसला लिया है। उन्‍होंने घोषणा की है कि सदन के भीतर कुर्ताफाड़ हंगामा करने वाले विधायकों की वीडियो रिकार्डिंग जनता को दिखाई जाएगी। विधायक के क्षेत्र में सीडी बंटवाई जाएंगी। ताकि जनता अपने प्रतिनिधि की कारगुजार देख सके। श्री राजभर का मानना है कि स्‍कूल में जब बच्‍चा उदृंड हो जाता है, तब उसके अभिभावक से शिकायत करनी पड़ती है। जनप्रतिनिधियों की अभिभावक जनता है। उसी ने चुनकर विधान सभा में विधायक को भेजा है। अभिभावक (जनता) को अपने विधायक के चरित्र के बारे में जानकारी होनी चाहिए।

उनका कहना है कि उत्‍तर प्रदेश में विधान सभा की एक मिनट की कार्रवाही में तकरीबन एक लाख रुपए से अधिक खर्च होते हैं। हंगामे की वजह से कई बार पूरा सदन स्‍थगित करना पड़ता है। पूरे देश में इस पर चिंता व्‍यक्‍त की जा रही है। श्री राजभर कहते हैं कि भारी मन से उन्‍होंने सदन की कार्रवाही की सीडी जनता के बीच प्रदर्शित करने का फैसला किया है। उनका मानना है कि हंगामे का नुकसान विपक्ष को ही ज्‍यादा उठाना पड़ता है। प्रश्‍नकाल में विपक्ष के विधायक ही अधिकतर सवाल उठाते हैं। जन समस्‍याओं पर सत्‍तापक्ष को घेरने का यही मौका होता है। लेकिन, बार-बार विपक्ष खुद अपना बहुमूल्‍य मौका खो देता है। आगरा प्रवास के दौरान विधान सभा अध्‍यक्ष ने कहा कि फिलहाल सदन में अधिकतर विधायक युवा हैं। उन्‍हें सदन की मर्यादा का प्रशिक्षण दिया गया है।प्रदेश में श्री राजभर के इस कदम का स्‍वागत किया जा रहा है। हालांकि एक सवाल उठता है कि ऐसा प्रयास कहीं विधायकों के शक्ति प्रदर्शन का माध्‍यम न बन जाय।

Thursday, September 27, 2007

भगत सिंह के विचारों ने बदल दिया जीवन दर्शन : राम सिंह

-प्रेम पुनेठा
शहीदे आजम के जन्‍म दिवस पर विशेष।
भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का ही प्रभाव था कि आगरा के एक छोटे से गांव का हेमचंद्र भूमिगत आंदोलन का सदस्‍य बन गया। उसने सारी जिंदगी के लिए अपना मूल नाम भी छोड़ दिया और सारी जिंदगी देश को समर्पित कर दी। भगत सिंह के बताए रास्‍ते और समाजवादी विचारों के लिए उसने कालापानी की सजा भी सहर्ष स्‍वीकार किया। अाज सब लोग उन्‍हें ठाकुर राम सिंह के नाम से जानते हैं।
राम सिंह बताते हैं कि जब उन्‍होंने 1930 में हिन्‍दुस्‍तान सोशलिस्‍ट रिपब्लिकन आर्मी की सदस्‍यता ग्रहण की थी। तब तक संसद में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह अपने साथियों के साथ गिरफ्तार हो चुके थे, लेकिन अदालत में दिए उनके बयान और गुप्‍त तौर से आए संदेशों को वे पार्टी सदस्‍यों के साथ जनता के बीच ले जाने का काम पर्चे, पोस्‍टर के माध्‍यम से करते थे। राम सिंह का कहना है कि उन दिनों वे अजमेर की इकाई में काम करते थे और गुप्‍त तौर से जनता के बीच पर्चे और पुस्‍तकें छपवा कर जनता के बीच बांटा करते थे। इन पर्चो के माध्‍यम से समाजवादी विचार और रिपब्लिकन आर्मी के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करते थे।
उन्‍होंने बताया कि 1930 में भगत सिंह को जेल से छुड़ानें की योजना भी हिन्‍दुस्‍तान सोशलिस्‍ट रिपब्लिकन आर्मी ने बनाई थी। इसलिए रणनीति तय करने और हथियार इकट्ठा करने के लिए लाहौर को केन्‍द्र बनाया गया था। इस काम के लिए अजमेर की उनकी इकाई से मदन गोपाल यादव के नेतृत्‍व में तीन सदस्‍य भी गए थे। लाहौर में जिस मकान में संगठन काम कर रहा था वहां सदस्‍यों की लापरवाही से बम विस्‍फोट हो गया। इससे पूरा मकान ही ध्‍वस्‍त हो गया। सभी साथियों को तत्‍काल लाहौर छोड़कर भागना पड़ा और भगत सिंह को छुड़ाने की योजना को त्‍यागना पड़ा।राम सिंह ने बताया कि भगत सिंह की शहादत के कुछ समय बाद ही चंद्र शेखर आजाद भी शहीद हो गए थे। यह संगठन के लिए बड़ा झटका था। इसके बाद भी दिल्‍ली स्थित केन्‍द्रीय कमेटी के नेतृत्‍व में इकाइयां क्रांतिकारी गतिविधियां संचालित करती रहीं। इन गतिविधियों का आधार भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के विचार ही होते थे। आजादी विरोधी पुलिस अफसरों को मारना तब भी जारी था। भगत सिंह की रणनीति की तरह ही 1935 में एक पुलिस अफसर की हत्‍या कर दी गई थी। यह पुलिस अफसर मेयो कॉलेज में मिले रिवाल्‍वर और नीमच से डायनामाइट चोरी की जांच करने के लिए अजमेर आया था लेकिन इन जांचों की आड़ में वह मध्‍य भारत की राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण लगाना चाहता था। उसके नापाक इरादों को भांपते हुए राम सिंह ने अफसर को गोली मार दी। इस मामले में उन्‍हें कालापानी की सजा सुनाई गई।
आज भी राम सिंह शहद भगत सिंह स्‍मारक समिति के अध्‍यक्ष हैं और उनके विचारों के प्रति समर्पित हैं। उनका मानना है कि जिन लक्ष्‍यों और विचारों को उन्‍होंने क्रांतिकारियों से ग्रहण किया, न तो आजादी उसके अनुरूप मिली और न देश के नेताओं ने जनता को मुक्ति दिलाने का प्रयास किया। राम सिंह का मानना है कि आज देश नेतृत्‍वविहीन हो गया है। धीरे-धीरे अमेरिकी साम्राज्‍यवाद हमें निगलता जा रहा है। देश के लिए यह एक बड़ी कठिन स्थिति है।

Wednesday, September 26, 2007

मुलायम सिंह के गांव में सबसे ज्ञानी युवा?

सरकार बदलने के बाद उत्‍तर प्रदेश में सिपाहियों की भर्ती में सबसे बड़ा घोटाला सामने आया है। लेकिन गड़बड़ी का सिलसिला इतना ही नहीं है। एक अन्‍य घोटाले की जांच कर रहे दल को पता चला है कि यूपी के होनहार और ज्ञानी पुरुष पूर्व मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव के गांव सैफई में बसते हैं। पिछले साल आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज में हुई नियुक्ति का 15 फीसदी हिस्‍से को इस छोटे गांव ने पूरा किया है। जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 3 हजार 817 है। इसे पूर्व मुख्‍यमंत्री के गांव का असर कहें या कलाबाजी, लेकिन सरकारी दस्‍तावेज यही बता रहे हैं। कॉलेज में 368 कर्मचारियों की नियुक्ति हुई और 50 से अधिक कर्मचारी सैफई के ही हैं। मायावती सरकार द्वारा गठित जांच दज के सामने अब नियुक्ति घोटले के राज खुल रहे हैं।
आगरा के मेडिकल कॉलेज में नियुक्तियों का दौर एक वर्ष से अधिक समय तक चला। सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मिली जानकारी के अनुसार साढ़े तीन सौ कर्मचारियों की भर्ती के लिए हजारों युवकों ने आवेदन दिया था। दिसम्‍बर 2006 तक तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के बताए जा रहे हैं। अब सबसे अहम सवाल उठता है कि आखिर हजारों अभ्‍यर्थियों में सबसे योग्‍य तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के गांव सैफई के ही हैं? गौरतलब है कि सैफई इटावा जिले का छोटा सा गांव है। सैफई को अलग करें तो 20 कर्मचारी भी पूरे इटावा के निवासी नहीं हैं। जानकारों का कहना है कि नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान सत्‍ताधारी नेताओं ने जमकर लाभ उठाया। खासकर खुद तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह यादव। सारी नियुक्तियां थिएटर टेक्‍नीशियन, प्‍लास्‍टर टेक्‍नीशियन, वर्कशॉप मिस्‍त्री, इलेक्‍ट्रीशियन आदि तकनीकि पदों के लावा गैस प्‍लांट मिस्‍त्री, जेनरेटर ऑपरेटर आदि पदों पर हुई थी। सैफई के पढ़े लिखे निवासी सिपाही और टेक्‍नीशियन हो गए और कम पढ़े लिखे फोर्थ ग्रेड की नौकरी पा ली। यहां का युवक पूर्व मुख्‍यमंत्री की कृपा से अब बेरोजगार नहीं रहा। मायावती सरकार इस राज का पर्दाफाश कर रही है।

Tuesday, September 25, 2007

चीन की कंपनी ने बढ़ाई होमियोपै‍थिक दवाओं की कीमत

गरीबों की पैथी कही जाने वाली होमियोपैथी अब आम लोगों की पहुंच से दूर होने वाली है। इस चिकित्‍सा पद्धति पर चीन की नजर लग गई है। होमियोपैथी की दवाएं दो प्रकार की होती है। इनमें से एक बायोकेमिक है, जिसे आम आदमी थोड़ी सी जानकारी रखकर भी इसका इस्‍तेमाल कर सकता है। बायोकेमिक बनाने के लिए हॉलैंड के शुगर ऑफ मिल्‍क (दूध का विशेष तरह पाउडर) की जरूरत पड़ती है। चीन की एक कंपनी ने हॉलैंड के साथ समझौता कर शुगर ऑफ मिल्‍क की बिक्री अपने कब्‍जे में कर लिया है। इसके बाद कीमत तीन से चार गुनी तक बढ़ा दी गई है। इसका असर भारत में होमियोपैथिक दवाओं पर भी हो गया है। जल्‍द ही कीतम और बढ़ने की बात कही जा रही है।
होमियोपैथिक दवाएं सस्‍ती और दुष्‍प्रभाव रहित होती है। इसके कारण गरीब और मध्‍यम वर्गीय लोगों के बीच दवाएं बहुत लोकप्रिय हो चुकी है। अब कीमत बढने का प्रभाव मरीजों पर ही पड़ रहा है। आम तौर पर होमियोपैथिक चिकित्‍सक ही परामर्श के साथ दवाएं भी देते हैं। इनमें से कई डॉक्‍टर बायोकेमिक दवाओं का प्रयोग करते हैं। शुगर ऑफ मिल्‍क की कीमत बढ़ने के साथ ही डॉक्‍टरों ने फीस की रकम बढ़ा दी है। दवा विक्रेता योगेश चंद्र शर्मा का कहना है कि छह महीने पहले तक शुगर ऑफ मिल्‍क सौ रुपये किलोग्राम बिकता था। लेकिन आज इसकी कीमत तीन सौ रुपये तक पहुंच गई है। बायोकेमिक दवाओं का इस्‍तेमाल आम आदमी भी कर सकता है। सरकार को आमलोगों का ख्‍याल करते हुए कीमत की बढ़ोत्‍तरी पर लगाम लगानी चाहिए। अगर यही चलता रहा तो गरीब जनता पर संकट आ जाएगा।
बायोकेमिक दवा की बढ़ती कीमत को देखकर कंपनियों ने होमियोपैथी में प्रयोग होने वाले दूसरी प्रकार की दवा 'डायुशन' और मदर टिंचर के दाम में भी इजाफा कर दिया है। अब इसकी कीमत तीस प्रतिशत तक बढ़ गई है। दूसरी ओर होमियोपै‍थिक सीरफ, टॉनिक, शैम्‍पू और तेल की कीमत में पचास फीसदी तक बढोत्‍तरी कर दी गई है।
एलोपैथिक चिकित्‍सा में ज्‍यादा खर्च से परेशान लोगों के लिए होमियोपैथी ही एक सहारा बची थी। अब यह पैथी भी दूर होती जा रही है।

Monday, September 24, 2007

बादल

-तारकेश्‍वर प्रसाद सिंह*

जब बादल का बीज सहेजती
प्रकृति होती है खुश
मुझे लगता है
उसकी खुशियों के कितने आयाम हैं
मसलन फूल की खुशी
चिडियों का पंख
होता जाता है और बड़ा
और इंद्रधनुषी
उसके बोल और प्‍यारे

जब बादल की कोपलें फूटती हैं
वनों में मृग दौड़ लगाने लगते हैं
ताल तलैयों की मछलियां
उछलने लगती हैं
धरती बिना जबान खोले
अपने अंदर पैदा करने लगती है
सुन्‍दरता के कई प्रतिमान
धरती आंखुआने लगती है
छोटे-छोटे बच्‍चे बारिश में भींगते
छोड़ते चले जाते हैं
कविता को पीछे और पीछे
सभ्‍यता के मालिकों के
कुकर्मों से उपजा शब्‍द
'पर्यावरण', प्रदूषण छोटा लगता है
उसकी चिंता बौनी

जो लोग धरती को मुठ्ठी में
बंदकर चाहते हैं दौड़ पड़ना
उनके सामने चुनौती अपने अणु परमाणु
भांति-भांति के नाश का सामान
फेंक कर शरणागत हो
धरती की छाती विशाल है
आओ जैसे मां के पास
आता है छोटा बच्‍चा
जैसे घोसले में आती है चिडिया

*कवि बैंक ऑफ बड़ोदा के मुजफ्फरपुर शाखा में कार्यरत है।

भूकंप नहीं सह पाएगी यमुना में खड़ी इमारत

यमुना के भीतर और किनारे रेत कालोनिया बनाने की होड़ सी मची है। लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि ऐसी कालोनी भूकंप का हल्‍का झटका भी नहीं सह पाएगी। भूकंप वैज्ञानिकों के अनुसार अगर चार रैक्‍टर पैमाने की भी हलचल हुई तो ताश के पत्‍तों की तरह इमारतें ढह जाएंगी। केन्‍द्र सरकार के शहरी भूकंप भेदता न्‍यूनीकरण कार्यक्रम (यूईवीआरपी) के अधिकारियों ने न‍दी में निर्माण को खतरनाक करार दिया है। ऐसी स्थिति में लोगों को यही कहा जाना चाहिए कि नदी के नहीं तो खुद के जीवन के लिए बि‍ल्डिंग न बनाओ।
आगरा भूकंप की दृष्टि से तृतीय खतरा वाला क्षेत्र है। अहमदाबाद भी इसी जोन में है। आगरा में भूकंपन का झटका कभी भी मिल सकता है। यूपी के राहत आयुक्‍त के नेतृत्‍व में चल रही यूईवीआरपी के प्रोजेक्‍ट समन्‍वयक जीवन पंडित का कहना है कि ठोस मिट्टी पर बनी इमारतों पर भूकंप का असर कम होता है। जबकि यमना और इसके तट रेत से भरा है। भूकंप होने पर रेत में भूजल मिल जाता है, इसे ल्क्विफिकेशन कहते हैं। यह दलदल बनाने का काम करता है। इससे नीव कमजोर हो जाती है और भवन ध्‍वस्‍त हो सकता है। भूकंप की दृष्टि से कभी भी नदी के पास निर्माण नहीं करना चाहिए।
बाढ़ के नजरिए से भी निर्माण ठीक नहीं है। मुम्‍बई में आंख मूंदकर बिल्डिंग बनाई गई और मीठी नदी का स्‍वरूप पतला हो गया। यही कारण है कि समुद्र का किनारा होने के बावजूद हल्‍की बारिश में ही मुम्‍बई में बाढ़ का नजारा देखने को मिलता है। बेंग्‍लरू की भी यही हालत है। हालांकि यमुना में पानी कम होने की वजह से रेत में नमी कम है, लेकिन पानी बढ़ने पर खतरनाक स्थित पैदा हो सकती है। भूकंपरोधी भवन के लिए भी दलदल सहने की क्षम‍ता होती है।
दूसरी परिस्थिति यह भी हो सकती है कि निर्माण के समय रेत में नमी हो और जब सूख जाय तो यह नमी खत्‍म हो जाय। इसके बाद नीव के पास जमीन खोखली हो जाती है। यहां निर्माण का मतलब है ''आ बैल मुझे मार''। पर्यावरणविद् राजेन्‍द्र सिंह कहा कहना है कि ऐसा कर लोग खुद को मौत को दावत दे रहे हैं। हालांकि कानूनन नदी के अंदर निर्माण करना गलत है। पर भ्रष्‍टाचार के आगे सारे कानून बेकार से हो जाते हैं। यमुना को बचाने के लिए लोगों को खुद ही आगे आना होगा।

Saturday, September 22, 2007

आगरा में यमुना पर कब्जे की कोशिश


कभी हमारी संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक माने जाने वाली और जीवन देने वाली नदी, ताल-तलैयों को अब हमारी नजर लग गई है। आबादी बढ़ने के साथ ज्यादा पैसे कमाने की चाहत में भू-माफियाओं और बिल्डरों ने पहले तो तालाबों-कुंओं को निगल लिया और अब जीवनदायिनी यमुना को भी निगलना शुरू कर दिया है। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों के बहाने यमुना पर कब्जा तो नजर आ रहा है, लेकिन इसके आगे चुप-चाप सदानीरा नदी को नाला बनाने की साजिश चल रही है। आगरा से होकर गुजरती यमुना के किनारे अब कान्हा और मुगल सम्राट शाहजहां के जमाने की खूबसूरती खो चुकी है। इन किनारों पर ऊंची-ऊंची इमारतें और फार्म हाउस बनने लगे हैं। उपग्रह से लिए गए चित्रों में इस तरह के अतिक्रमण का भयावह नजारा सामने आया है। आगरा के तीन किलोमीटर के दायरे में नदी के भीतर करीब सौ मीटर तक कब्जा हो चुका है। 12 किलोमीटर के दायरे में प्लॉटिंग तक हो चुकी है।
आगरा में यमुना को सिकंदरा से ताजमहल जाने में करीब 38 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। जबकि वायु मार्ग से यह दूरी आठ किलोमीटर के करीब है। इसी का फायदा यहां के बिल्डर उठा रहे हैं। यमुना में अवैध निर्माण चौंकाने वाली स्थिति में पहुंच चुका है। सेटेलाइट से खींची तस्वीरों के अनुसार बल्केश्वर में नदी के अंदर अंधाधुंध इमारतें बन चुकी हैं। दयालबाग स्थित नगला बूढ़ी में नदी के अंदर पूरी कालोनी बसाई जा रही है। दो बहुमंजिली इमारत यमुना में खड़ी हो चुकी है। हालांकि पानी कम होने के कारण देखने में नदी का फासला नजर आता है।दीवार खड़ी कर और मिट्टी डालकर निर्माण हो रहा है। इसके आगे बढ़ें तो यमुना को छूती हुई कालोनियां बसी हुई है। इनके सीवरेज का पानी सीधा यमुना में जाता है। यमुना के साथ-साथ पोइय्या घाट तक करीब 12 किलोमीटर क्षेत्र में नदी के किनारे प्लॉटिंग हो चुकी है। यह सब हो रहा है आगरा विकास प्राधिकरण (एडीए) और स्थानीय पंचायतों की मिलीभगत से। पर्यावरणविद् पवन जैन के अनुसार वायु एवं जल प्रदूषण नियंत्रण कानून 1974 के तहत नदी के वास्तविक स्वरूप में किसी भी प्रकार का निर्माण दंडनीय अवराध है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में दक्षिण भारत में मानसून ने कहर बरपा रखा था। दूसरी ओर बिहार और पश्चिम बंगाल अबतक बाढ़ को कोप झेल रहे हैं। अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नदियों पर कब्जे इसी तरह होते रहेंगे तो यमुना के खूबसूरत नजारे देखने के लिए बनाई गई कालोनियां डूब जाएंगी।
इधर सिटीजन एक्शन ग्रुप ने यमुना को बचाने के लिए दो अक्तूबर को धरना देने का फैसला किया है। इसके संयोजक व वरिष्ठ पत्रकार बृज खंडेलवाल ने बताया कि आगरा के संजय प्लेस स्थित शहीद स्मारक पर यमुना रक्षा कार्यक्रम आयोजित किया गया है।
-Sanmay Prakash.

Friday, September 21, 2007

देश-विदेश में महात्‍मा गांधी का फरेबी सम्‍मान

-वैद्यनाथ प्रसाद सिन्‍हा
युग की विडम्‍बना है कि मूलरूप में हिंसक-आक्रामक मनोवृति वाले देशों द्वारा संपोषित संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने इस वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्‍टूबर 2007 को उनकी मूर्तियां स्‍थापित कर सम्‍मानित करने का मन बनाया है। सत्‍तर चूहे खाकर बिल्‍ली के हज पर जाने को चरितार्थ करने वाले दशों में जब अन्‍य ताकतवर आतंकवादी संगठनों का भय व्‍याप्‍त हो गया है, तो उन्‍हें गांधी की अहिंसा याद आई है। उत्‍तरी कोरिया, ईरान, इराक, फिलिस्‍तीन, अफगानिस्‍तान जैसे अनेक देशों पर हमले करने-कराने वाले हिंसक देशों को साठ वर्षों तक गांधी याद नहीं आये।
भारत में क्रांतियां तो बहुत हुई। परंतु गांधी के न्‍याय, अहिंसा और सत्‍याग्रह पर आधारित आंदोलनों से ही अंततोत्‍वा भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। उन्‍हीं की बदौलत भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री बने। परंतु पश्चिमी सभ्‍यता में पले-बढ़े नेहरू ने गांधीवाद का ही पूरी तरह परित्‍याग कर दिया, भले ही खादी वस्‍त्र और गांधी टोपी पहनते रहे। शहरी और मशीनी अर्थव्‍यवस्‍था के मॉडल में स्‍वदेशी अर्थव्‍यवस्‍था के सामाजवादी मॉडल के सामने बढ़-चढ़ कर महत्‍व दिया, हालांकि इससे बेरोजगारी और गरीबी बढ़ने लगी।
देवतातुल्‍य श्रद्धास्‍पद माने जाने वाले पंडित नेहरू की सरकार के सामने धीरे-धीरे एक-एक कर समस्‍याएं खड़ी होती गयीं- कारण गांधी से मत-भिन्‍नता हो या और कुछ। नेहरू उनका समाधान करने में भारी परेशानी महसूस करने लगे थे, जैसे-मद्रास (आज के तमिलनाडु) में भीषण हिन्‍दी विरोध, पंजाबी सूबे की मांग। दो हिस्‍सों में बांटकर आंध्र और कर्नाटक राज्‍यों की स्‍थापना की मांग पर उनके नेता श्रीरामुल की बहुत लम्‍बी भूख हड़ताल पर जाने से मृत्‍यु हो गई और तत्‍पश्‍चात् उनकी मांगे माननी पड़ीं। केरल में साम्‍यवादी सरकार की स्‍थापना हुई, जो गैर कांग्रेसी सरकार का पहला उदाहरण था। उसे बहुमत में रहते हुए बहाने से भंग कर राष्‍ट्रपति शासन लगाया गया। देश में कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और वामपंथी विचारधारा की प्रगति क्रमक्रम से हो रही थी, जिसमें चीन से उपलब्‍ध पुस्‍तकों-पत्रिकाओं का योगदान था। पश्चिम बंगाल में वामपंर्थयों को दबाकर कांग्रेस को जीत दिलाये जाने का श्रेय प्रशासनिक भ्रष्‍टाचार को जाता था। मद्रास में वामपंथी विचारधारा के उभार को रोकने के लिए भारत के अंतिम गवर्नर जेनरल (राष्‍ट्रपति तुल्‍य) पद पर रह चुके चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मुख्‍यमंत्री बनाकर भेजा गया था, क्‍योंकि वे सामंतवादी और घोर पूंजीवादी, अमेरिका-परस्‍त नेता थे। दमन से परेशान वामपंथियों ने ही सम्‍भवत: नाम बदलकर "द्रविड़ मुन्‍नेत्र कड़गम्" नामक दलितों-पिछड़ों-गरीबों की पार्टी बना ली। कांग्रेस की अलोकप्रियता बढ़ते जाने से नेहरू के सामने मूल समस्‍या यह खड़ी थी कि वामपंथी विचारधारा से जनमत को विमुख कर कांग्रेस की ओर कैसे मोड़ा जाय। इस परिप्रेक्ष्‍य में भी भारत-चीन युद्ध को देखा जा सकता है। यहां गांधी की आत्‍मनिरीक्षण द्वारा शांतिपूर्ण अहिंसक निदान खोजने की मानसिकता की उपेक्षा का भी समय आया।
जब देश पर बाहरी मुसीबतें आती हैं, तो सारी घरेलु मुसीबतें फीकी होती जान पड़ती है। इसी अवसर पर भारत-चीन समस्‍या खड़ी हुई है। घुसपैठ के आरोप-प्रत्‍यारोप लगने लगे। भारत का आरोप था कि चीन ने हजारों एकड़ जमीन हड़पी हुई है। चीन के आरोपों में यह सुना गया कि भारतीय सीमा सैनिक बिना अनुमति लिए तिब्‍बत में घुस कर अंडे-मुर्गे खरीद लाते हैं, कि भारत के लोगों ने अमुक संख्‍या में चीन की भेड़ें चुरा ली है, कि चीन के अरूणाचल क्षेत्र पर भारत ने नाजायज कब्‍जा कर रखा है। भारत ने जोर-शोर से 'मैकमेहन लाइन' की दुहाई दी। मैक मेहन नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने भारत की आजादी के बहुत पहले भारत-चीन सीमा के निधारण के लिए प्रस्‍ताव के रूप में कागज पर इस रेखा को खींचा था। मगर यह प्रस्‍ताव चीनी सरकार के सम्‍मुख कभी प्रस्‍तुत ही नहीं किया गया था। पूरे युद्ध क्षेत्र में घूमे हुए ब्रिटिश पत्रकार जार्ज मैक्‍सवेल ने अपनी पुस्‍तक 'इंडियाज़ चाइना वार' में इस प्रसंग का विस्‍तृत वर्णन किया है। अंतत: 1962 के भारत-चीन युद्ध का माहौल बन गया।
दो पड़ोसी देश परम्‍परा के अनुसार मिल-बैठ कर सीमा रेखाएं तय किया करते हैं। चीन के प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ ने समस्‍या के समाधान के लिए तत्‍कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को दोस्‍ताना बातचीत के लिए पेकिंग या रंगून आने का निमंत्रण दिया। जब इसके लिए नेहरू तैयार नहीं हुए, तो चाउ-एन-ला बिना निमंत्रण के दिल्‍ली चला आया। मगर बात होनी नहीं थी-नहीं हुई। यह घोषणा हुई कि चीन ने भारत पर हमला कर दिया है। युद्ध जारी हो गया। दोस्‍ताना समझौता वार्ता से नेहरू का किसी बहाने इन्‍कार करना गांधी की शांति और अहिंसा की प्रक्रिया के विपरीत था, उनकी मूल भावना का हनन था।
पूर्वी क्षेत्र नेफा के युद्ध प्रभरी लेफ्टिनेंट जेनरल बीएम कौल ने अपनी पुस्‍तक दि अंटोल्‍ड स्‍टोरी में लिखा है कि नियमों और परम्‍परा के अनुसार लड़ाइयां किसी सैनिक उच्‍चाधिकारी के निर्देशन-नियंत्ण में लड़ी जाती हैं, परंतु यह लड़ाई नेहरू के निर्देशन-नियंत्रण में लड़ी गई थी। यों कहें कि लड़ाई हुई भी और (ठीक से) हुई भी नहीं। संदेह होता है कि इस छद्म उद्देश्‍य के लिए लड़ाई का नाटक हुआ। इस युद्ध के संदर्भ में कुलदीप नैयर और पीएन हक्‍सर की पुस्‍तकें- बिटविन दि लाइंस और हिमालयन ब्‍लण्‍डर्स भी द्रष्‍टव्‍य है। रहस्‍य की बात यह भी है कि सारी पुस्‍तकें नेहरू की मृत्‍यु के बाद ही प्रकाशित हुई, उनके जीवनकाल में नहीं। आज जब सीमा निर्धारण के लिए दोस्‍ताना वार्ताएं चल रही हैं तो हाय-तौबा मचाने वाली मैकमेहन लाइन और चीन द्वारा हड़पी गयी हजारों एकड़ जमीन की चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ती।
गांधी जी ने भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे देशप्रेमी क्रांतिकारियों के हिंसक समाजवाद को भले ही स्‍वीकार नहीं किया हो, या साम्‍यवाद की व्‍यावहारिकता के कायल नहीं हुए हों, परंतु उनका आंदोलन समाज में व्‍याप्‍त गरीबी, विषमता, शोषण सामंतवाद और भेदभाव को प्रभावी ढंग से समाप्‍त करने के लिए ही था न कि अंग्रेजों से सिर्फ सत्‍ता छीनने के लिए। उनकी दृष्टि इस पर थी कि किसी कार्य-योजना का लाभ मुख्‍यत: गरीबों तक पहुंचता है या नहीं। इसके ठीक विपरीत आज सारी सरकारी योजनाओं का लाभ धनकुबेरों को मिलता है। गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ भी मूलत: सत्‍ताधारियों, ठेकेदारों, अधिकारियो-कर्मचारियों और बिचौलिए दलालों को मिलता है।
कांग्रेस की परवर्ती सरकारों के काल में भारतीय मुद्रावाले नोटों पर तिरस्‍कृत गांधी का चित्र बैठा देना, या प्रतीक रूप में उन्‍हें नोटों में कैद करके रखना उनका मजाक उड़ाना है, क्‍योंकि उनकी सारी नीतियों को अमान्‍य किया हुआ है। नीतियों के संबंध में जनता को बरगलाने का भी एक हथकंडा है। मुख में राम, बगल में छुरी। पूंजीवादी अन्‍य देश किसी दांव-पेच की मानसिकता से गांधी को सम्‍मानित करनाचाहते हैं, तो यह उनकी अपनी (दूषित) राजनीति है।
व्‍यवसायियों-उद्योगपतियों की संस्‍था, फिक्‍की के वार्षिक अधिवेशन 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उलटबांसी की कि बोरोजगारी दूर करने के लिए अधिक से अधिक बड़े उद्योगों की स्‍थापना आवश्‍यक है। एक विख्‍यात अर्थशास्‍त्री का यह अजूबा बिलायती अर्थशास्‍त्र है। एक अदना आदमी भी कह सकता है कि मशीनों का काम ज्‍यादा से ज्‍यादा मजदूरों को हटाकर और कम से कम मजदूरों से काम लेकर ज्‍यादा से ज्‍यादा उत्‍पादन करना है, जिसका सीधा लाभ उद्योगपतियों को मिलता है, मजदूरों को नहीं। फिर बेरोजगारी दूर होने की बात कहां से आती है?
फिक्‍की की ही सभा में मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों से नम्र निवेदन किया कि वे अपने मुख्‍य कार्यान्‍वयन अधिकारी को जो करोड़ों का वेतन देते हैं, उसे घटाएं और कमजोर तबकों को भी अपने उद्योगों में नौकरियां दें। उद्योगपतियों ने गहन चिंतन के बाद उनकी दयनीय निवेदन को अस्‍वीकृत कर दिया। आपने अपने पद का अपमान कराया। लोकसभा-राज्‍यसभा के माध्‍यम से समुचित कानून बनाकर उद्योगों को नियंत्रित करने, लाभकारी उद्योगों को भूमिकरों, उत्‍पादकरों और आयकरों पर दी जाने वाली छूटों-रियायतों को समाप्‍त करने का अधिकार सरकार को है। लाभकारी उद्योगों को सहायता की जरूरत ही क्‍यों है? 8 घंटों की शिफ्टों को 6 घंटों की शिफ्टों में बदलकर रोजाना 3 शिफ्ट वाले उद्योगों में 4 शिफ्टें करने से रोजगार बढ़ेगा। सीईओ के वेतन में कटौती करने की भी मजबूरी आयेगी।
महात्‍मा गांधी मशीनों और वैज्ञानिक विकास के विरोधी नहीं थे। वे स्‍वयं भी उनका उपयोग-उपभोग यदा-कदा करते ही थे। उनका चरखा-करघा और घड़ी एक एक मशीन ही है। परंतु वे जानते थे कि बड़े उद्योगों (मशीनों) की उत्‍पादन क्षमता का लाभ गरीबों को दिलाने में न तो समाज कुछ कर सकेगा, और न सरकार में इच्‍छा-शक्ति होगी। इसलिए उन्‍होंने लघु और मध्‍यम उद्योगों की स्‍थापना की वकालत की। जिन उद्योगों (मशीनों) का विकल्‍प नहीं है, उन पर तो विवाद ही नहीं है। विवाद तो तब उठता है, जब बड़ी मशीनें बड़े पैमाने पर आदमी को बेरोजगार और बेसहारा बनाती हैं, और सरकार इसका कोई समाधान नहीं ढूंढ पाती।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क्रिय-कलापों में जो भी त्रुटियां हों, परंतु उनके कार्यकाल में भारतीय संविधान के उद्देश्‍यों में समाजवाद (लाना) शामिल किया गया था। मगर परवर्ती सत्‍ताधारियों ने देश पर अघोषित, घोर पूंजीवाद लाद दिया। सारे सार्वजनिक उद्योगों को निजी हाथों में बेचना शुरू कर दिया। हजारों-लाखों एकड़ जमीन के मालिकों से आधे-अधूरे मूल्‍य पर छीन कर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने के लिए विदेशी-स्‍वदेशी कंपनियों के हाथों सौंप रही है, और भूस्‍वामियों को विस्‍थापित अनाथ और बेराजगार बना रही है। इतना भी राजनीतिक शऊर नहीं रहा कि समाजवादी संविधान से समाजवाद शब्‍द को विलोपित करा दे। क्‍या कमाल है- संविधान में समाजवाद और देश में पूंजीवाद।
कौन जाने, इंदिरा गांधी और मोहनदास करमचंद गांधी की दिव्‍य आत्‍माएं स्‍वर्ग में क्‍या महसूस करती होंगी!

Wednesday, September 19, 2007

पानी की जगह यमुना में है बालू ही बालू

-सन्‍मय प्रकाश
अविरल यमुना नदी में पानी की जगह बालू ही बालू है। नदी की तलहटी में जगह-जगह बालू के टीले खड़े हो गए हैं। पानी को बहने के लिए भी रास्‍ता तलाशना पड़ रहा है। दिल्‍ली से मथुरा तक बांधों की शृंखला ने नदी की धार पहले ही खत्‍म कर दी थी। यही कारण है कि अब बालू इसकी राह में दीवार बनकर खड़े हो गए हैं। प्रदूषण मुक्‍त करने के नाम पर अरबों रुपए खर्च करने वाली सरकार और एजेंसियों को दुर्व्‍यवस्‍था के इस आलम की चिंता नहीं है। अगर यमुना के तलहटी से बालू नहीं हटाया गया तो इसके मरने की नौबत आ जाएगी।
अबतक यमुना के जीवन के लिए प्रदूषण ही एक समस्‍या नजर आ रही थी। इसके लिए तमाम रणनीति बनाई गई। लेकिन रणनीतिकारों ने यह नहीं सोचा कि सदा अविरल बहने वाली इस नदी को आगे बढ़ने के लिए चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आज यमुना के लिए यह सबसे प्रमुख समस्‍या बनकर उभर रही है। दिल्‍ली से आगरा तक पहुंचने में चार बैराज को पार करने में गंदे पानी सीवरेज से भरी यमुना की धार तार-तार हो जाती है। काले रंग में रंगी यमुना को ताजमहल के पास पहुंचने के लिए बालू के टीलों से मशक्‍कत करनी पड़ रही है। बालू इस कदर जमा हो गया है कि कई जगह तीन फिट पर ही नदी बह रही है। आगरा के जवाहर पुल, स्‍ट्रेची पुल के पास तलहटी की स्थिति नदी के बाहर की जमीन से ज्‍यादा ऊंची हो गई है। जगह-जगह बालुओं के टापू बन गए हैं। हालत यह है कि कुछ जगह नदी को पार करने के दौरान पानी कमर तक ही आता है। यदि ड्रेजर से बालुओं को यमुना की तलहटी से हटा लिया जाय तो पानी के बहाव मं गति आ जाएगी। इससे पानी के स्‍वयं स्‍वच्‍छ होने में सहायता मिलेगी। यमुना एक्‍शन प्‍लान-द्वितीय के प्रभारी सुरेश चंद्रा कहते हैं कि ड्रेजिंग का काम राष्‍ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एनआरसीडी) का है। लेकिन पूछ जाने पर कि नदी के जीवन के लिए क्‍या कोई प्रस्‍ताव भेजे गए हैं? उन्‍होंने बताया कि इस संबंध में कभी सोचा नहीं गया। गौरतलब है कि यमुना एक्‍शन प्‍लान एनआरडीसी के अंतर्गत चल रहा है। कुछ वर्ष पहले ड्रेजर मंगाकर बालू हटाए जाने की बात हुई थी, हालांकि कोई कदम नहीं उठाए गए। अभी प्रशासन ने छह स्‍थान पर बालू उत्‍खनन का ठेका दिया है। हालांकि यह नदी में जम रहे बालू को हटाने में नाकाफी है। पर्यावरणविद् बृज खंडेलवाल का कहना है कि अगर बालू नहीं हटाए गए तो नदी को बचाने की कोशिश बेकार हो जाएगी।

Monday, September 17, 2007

अरावली के साथ खत्‍म हो रहा है ताजमहल का सुरक्षा कवच

पारिस्थितकीय असंतुलन का असर व्‍यापक होता जा रहा है। ब्रज क्षेत्र से गुजरने वाली अरावली पर्वत श्रृंखला के विनाश के साथ ताजमहल का सुरक्षा कवच खत्‍म हो रहा है। खान माफिया भरतपुर, मथुरा, और आगरा के ताज ट्रेपेजियम जोन (टीटीजेड) में हर दिन डायनामाइट से पहाड़ों के परखचे उड़ा रहे हैं। खनन के साथ ही साल दर साल पहाड़ घटते जा रहे हैं और राजस्‍थान से चलने वाली धूल भरी आंधी सीधे आगरा पहुंच रही है। रेत के कण लगातार ताजमहल पर प्रहार कर रहे हैं। इसके संगमरमर का लगातार क्षय हो रहा है। केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि अगर पहाड़ों के खनन को न रोका गया तो इस स्‍मारक की खूबसूरती का ह्रास जारी रहेगा।
केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पिछले बीस सालों के आंकड़ों ने चौंकाने वाले तथ्‍य उजागर किए हैं। सीपीसीबी के अनुसार वर्ष 1987 में आगरा में एसपीएम की मात्रा 416 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर धूलकणों को मापा गया था। जबकि वर्ष 2006 में यह आंकड़ा बढ़कर 637 माइक्रोग्राम हो गया है। अरावली पर्वत और उसका घना वन रेगिस्‍तान की धूल भरी आंधी को आगरा की ओर जाने से रोकता है। लेकिन कई पर्वतों की मौत के बाद आंधी को रोकने वाला यह कवच भी खत्‍म हो गया है। वर्ष के आठ महीने आगरा को ऐसी आंधियों का कोप झेलना पड़ता है।
टीटीजेड क्षेत्र में अरावली की पर्वत श्रृंखला के उत्‍खनन पर सर्वोच्‍च न्‍यायालय रोक लगा चुकी है। फिर भी तमाम नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर भतरपुर के कामां, मथुरा के बरसाना तहसील के चिकसौली गांव, अगरा के अछनेरा तहसील स्थित पुरामना और बहरावती तथा फतेहपुर सीकरी के पास राजस्‍थान सीमा के डाबर गांव में पहाड़ों से सैकड़ों ट्रक पत्‍थर हर दिन निकाले जा रहे हैं। प्रत्‍येक पहाड़ के आस-पास पत्‍थर तोड़ने की क्रशर मशीन लगी है। पत्‍थरों के खनन के साथ ही साल दर साल हजारों घने पेड़ों को काटा जा रहा है। दहशत में डालने वाली डायनामाइट के विस्‍फोट की आवाज के साथ ही पहाड़ों पर कई जिंदगियां भी खत्‍म होती है। सीपीसीबी के अधिकारी डॉ:डी साहा की रिपोर्ट के मुताबिक चार-पांच वषों में हुई खुदाई से समूचा वन क्षेत्र तहस-नहस हो गया है। इसके साथ ही पर्यावरणीय समस्‍याएं भी उत्‍पन्‍न हो गई है।
ताजमहल के संरक्षण के लिए विशेष क्षेत्र को टीटीजेड घोषित किया गया था। फिर भी यहां विनाशलीला चल रही है। डॉ:साहा के मुताबिक ताजमहल की खूबसूरती में कमी आने और नुकसान का यह बड़ा प्राकृतिक कारण है। गौरतलब है कि विश्‍वदायक स्‍मारक ताजमहल को सुरक्षित रखने के लिए के नाम पर आगरा और इसके आस-पास के क्षेत्रों के 212 उद्योगों और 450 ईंट भट्ठों को बंद कराया जा चुके हैं। इसके कारण धूलकणों की मात्रा वर्ष 2001 में थोड़ी कमी आई थी। लेकिन अब स्थिति और गंभीर हो चुकी है। पहाड़ों की रक्षा में ब्रज रक्षक दल कुछ वर्षों से आंदोलन छेड़ रखा है। दल के अध्‍यक्ष व वरिष्‍ठ पत्रकार विनीत नारायण का कहना है कि ब्रज पर्वत श्रृंखला के कटने से रेगिस्‍तानी भू-भाग बढ़ रहा है। पर्वतों का विनाश कर गड्ढे छोड़े जा रहे हैं। ब्रज के पर्वत 17800 एकड़ में फैले हुए हैं। इतना बड़ा क्षेत्र होने के कारण कृष्‍ण की लीलास्‍थली पर खनन माफिया की नजर है। आमलोगों को पर्वत के बचाव के लिए आगे आना होगा।
-सन्‍मय प्रकाश

अंतिम इच्‍छा

- ओपी सरीन, आगरा।

अंतिम इच्‍छा
जब कोई नहीं रह जाएगा
साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरयों, गिलहरियों से
बिछुड़कर जाएगा
एक वृक्ष।
अग्नि प्रवेश करेगा वही
मुझसे पहले,
कितनी लकड़ी लगेगी
श्‍मशान की टाल वाला पूछेगा।
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूं अंतिम इच्‍छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो
मेरा संस्‍कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे
संसार में।