-वैद्यनाथ प्रसाद सिन्हा ..
पहली-पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में गांधी जयंती पर 'अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्य पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो सका। राष्ट्र संघ के महासचिव वान की मून या भारत की आमंत्रित प्रतिनिधि सोनिया गांधी या किसी अन्य के भाषणों से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ, कि किसी ने अपने जीवन में या देश में अहिंसा के रास्ते पर चलने का संकल्प किया हो। श्री मून के यह चिंता व्यक्त करने का कोई अर्थ नहीं है कि, परमाणु अस्त्र अप्रसार की समस्या पर अन्य देशों से कोई सार्थक सहयोग नहीं मिल रहा। यह तो अरण्य रोदन के जैसा प्रतीत होता है।
भारत की सोनिया गांधी ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आतंकवाद से निपटने और परमाणु अस्त्र प्रसार पर अंकुश में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सामूहिक रूप में विफल रहा है और आतंकवाद पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है। उन्होंने विरोधियों को मीठी और तर्कपूर्ण बातों से समझाने-बुझाने की वकालत की। जबकि अपने ही देश में 'स्पेशल एकनामिक जोन' के नाम पर गरीबों से जबर्दस्ती जमीन छीने जाने का विरोध होता है, तो समझाने के बदले, गोलियों से भूना जाता है। तो 'विश्व अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्य क्या यही था, कि विरोधियों, दुश्मनों और आतंकवादियों को बताया जाय, कि तुमलोग अहिंसा के रास्ते पर चलो, क्योंकि यह विश्व-विख्यात महात्मा गांधी का उपदेश है। अन्यथा तुम्हें तोपों से उड़ा दिया जायेगा ? फिर अहिंसा दिवस मनाने का भला क्या अर्थ है?
अहिंसा शब्द जितना सरल लगता है, उसका अर्थ उतना ही गहन और गूढ़ है। मनुष्य मात्र का शत्रु भयानक हत्यारा ‘अंगुलिमाल’ के सम्मुख महात्मा बुद्ध जब निर्भीक भाव से आये, तो उन्होंने यही नहीं कहा, कि ‘अहिंसा परमो धर्म’, जबकि इस सनातन उक्ति में गलत कुछ भी नहीं है। उसे पापी भी नहीं कहा। जिन्होंने उसे अपनी मर्मस्पर्शी मीठी युक्तियों से प्रभावित और प्रेरित करके निरीहों की हत्या की निरुपयोगिता और व्यर्थता का बोध कराया। अंगुलिमाल की चिंतनधारा तत्क्षण बदल गयी। जीवन भर करुणा, प्रेम, दया, क्षमा का उपदेश देने वाले महात्मा बुद्ध ने उससे ‘अहिंसा’ अपनाने की बात नहीं कही। तिब्बती बौद्ध लोग याक (एक पालतू पशु) का थुथना कस कर बांध देते हैं और जब वह दम घुंटकर मर जाता है, तो वे उसका मांस बड़े ही प्रेम से खाते हैं। वे उसे हिंसा नहीं मानते, क्योंकि याक से उनकी दुश्मनी नहीं है, बल्कि प्रेम है। हत्या तो दुश्मनों की हुआ करती है। वे लोग प्रेम, करुणा, दया, क्षमा के सागर महात्मा बुद्ध के अनुयायी हैं।
असाध्य रोगों से पीडि़त छटपटाती उस बछिया का उल्लेख भी सुमीचीन होगा, जिसकी पीड़ा से द्रवित महात्मा गांधी ने उसे जहर की सुई से मौत की मीठी नींद सुलाने की अनुमति दी थी। फिर यह अपनी-अपनी दृष्टियों पर निर्भर है कि कौन किसको हिंसा मानता है, और कौन किसको अहिंसा मानता है। ‘अहिंसा’ एक नकारात्मक बोध का शब्द है, किसी सकारात्मक बोध का नहीं। इसके भिन्न-भिन्न अर्थ किस-किस युग में कहां-कहां तक व्याप्त हो सकते हैं, कहना कठिन है। अनेके हिंसकों को पता भी नहीं कि वे हिंसक भी हैं, या कहीं कोई हिंसा भी हो रही है। चूंकि हिंसा का अर्थ सिर्फ हत्या नहीं है, बल्कि जीवों को अनेक प्रकारों से पीडि़त-प्रताडि़त करना भी है, कष्ट देना भी है। इसलिए अहिंसा का भी कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक प्रकार भी निर्धारित नहीं हो सकता। महात्मा गांधी ने ‘अहिंसा’ शब्द की व्यापकता को देखते हुए, माना कि वही अहिंसा साधनीय है, जिसकी उपयुक्तता अनुभव जन्य सत्य से सिद्ध हो चुकी है। इसलिए उन्होंने ‘सत्य और अहिंसा’ का एक साथ प्रयोग किया। परंतु राष्ट्र संघ ने सत्य की उपेक्षा की और मात्र ‘अहिंसा दिवस’ मनाया।
यह विश्व विदित है कि अमेरिका ने अपने पिठ्ठू देशों के साथ मिलकर इराक पर भयानक हमला किया, जबकि जांच में वहां परमाणु अस्त्र होने का कोई सबूत नहीं मिला और राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद ने हमले के लिए कोई अनुमति नहीं दी थी। जिनके हाथ-रक्त रंजित हैं, वे देश-दुनिया को बरगलाने के लिए ‘अहिंसा’ का नकली राग अलापते हैं। कहते हैं, कि मिस्टर बुश के खानदान की ओसामा बिन लादेन से ‘दांत कटी रोटी’ वाली दोस्ती थी। साझा व्यवसाय चलता था। फिर क्या बात हुई, कि एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन बैठे? किसी से विश्वासघात करना भी हिंसा है। हिंसा से उपजी ‘प्रतिहिंसक’ नहीं, बल्कि स्वयं प्रथम ‘हिंसक’ बताता है।
अति उन्नत मशीनें मानवीय बुद्धि से नि:सृत विज्ञान के बड़े अनोखे चमत्कार हैं, जो मानव जाति को श्रम से निवृत्ति दिलाकर सुख और आनंद के चरम उत्कर्ष पर पहुंचाने की क्षमता रखती हैं। परंतु मानव स्वार्थ के वशीभूत होकर उनका दुरुपयोग करता है। उन्हीं मशीनों से बहुत बड़े समाज का शोषण और उत्पीड़न करता है। बेरोजगारी फैलाकर आदमी को गरीबी, भूखमरी और आत्महत्या के दानव के हाथों में ला पटकता है। मोहम्मद साहब या ईसा मसीह या गौतम बुद्ध या महात्मा महावीर को जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए हुआ। उसी प्रकार वैज्ञानिकों की बुद्धि को भी ईश्वरीय प्रेरणा से भिन्न-भिन्न आविष्कारों की झलक आती है। उनके आविष्कार सम्पूर्ण मानव जाति के हित के लिए हैं। परंतु आज ‘अयम् निज: परोवेति’ की क्षुद्रता वाले चालबाज और धनसम्पत्ति के स्वामी, इन आविष्कारों को पूंजी के हथियारों से लूट लेते हैं, और स्वलाभ के लिए मशीनों को परोक्ष हिंसा का साधन बना लेते हैं।
यही हाल अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों और विशेष कृषि क्षेत्रों का है। किसानों से जमीन औने-पौने भाव में छीन कर विस्थापित और पीडि़त किया जा रहा है। कृषि भूमि से उन्हें वंचित करना हिंसा है। उस उत्पीड़न और हिंसा के निस्तार के लिए खुले मन से गरीबों-असहायों के हित में कोई वास्तविक अहिंसा दिवस क्यों नहीं मनाया जाता?
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