Monday, January 28, 2008

मौसम के उतार-चढ़ाव से परिंदे भी हैरान

ठंड से लौटी कीठम पक्षी विहार में चहचहाहट
- सन्‍मय प्रकाश ......
मौसम के उतार चढ़ाव ने मनुष्‍यों ही नहीं, प्रवासी पक्षी को भी हैरान कर दिया है। उड़ान भर चुके चालीस हजार पक्षियों ने सफर स्‍थगित कर वापस आगरा के कीठम पक्षी विहार में डेरा डाल लिया। एक बार फिर एक लाख परिंदों की चहचहाहट से कीठम गूंज उठा है। दरअसल, दस दिन पहले हुई हल्‍की गर्मी ने प्रवासी पक्षियों को सर्दी का मौसम खत्‍म होने का आभास दिलाया था। इस दौरान उन्‍होंने जमकर भोजन किया और ऊर्जा बढ़ा ली। इसके बाद वे अपने-अपने वतन की ओर रवाना हो गये। तापमान गिरते ही परिंदों को मौसम की असलियत का अंदाजा हुआ और वापस कीठम लौट गये।
कीठम पक्षी विहार में आमतौर पर लद्दाख, चीन, बर्मा, साइबेरिया आदि ठंडे देशों से ही प्रवासी परिंदे आते हैं। उन देशों में इस वक्‍त बर्फ पड़ने लगती है। खाने की समस्‍या की वजह से पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा कर पक्षी विहार में डेरा डालते हैं। फरवरी की समाप्ति के साथ ही उनकी वापसी शुरू हो जाती है। लेकिन ग्‍लोबल वार्मिग ने मौसम के चक्र में जबरदस्‍त असर डाला है। इस बार सर्दी के मौसम में भी काफी दिनों तक गर्मी का अहसास हुआ। ऐसी स्थिति से परिंदे अछूते न रह सके। जिस प्रकार मनुष्‍यों ने दस दिन पहले गर्म कपड़ों की पैकिंग कर दी थी। लोगों ने सोचा कि सर्दी अब खत्‍म हो गई। प्रवासी पक्षियों ने भी ऐसा ही महसूस किया। उन्‍हें लगा कि आगरा में गर्मी शुरू होने का मतलब है कि उनके वतन में भी सर्दी में कमी आई है। वन विभाग के रेंज ऑफिसर आरबी उत्‍तम के अनुसार उड़ान भरने से पहले पक्षी अपनी ऊर्जा बढ़ाते हैं। पक्षी कुछ दिनों तक खूब भोजन करते हैं और अपना वजन बढ़ाते हैं। अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्‍न प्रजाति के पक्षी एक बार में सौ से हजार किलोमीटर की यात्रा करते हैं। चालीस हजार परिंदों ने उड़ान भरी और दो दिन बाद ही भीषण सर्दी शुरू हो गई। इसके बाद सभी ने यात्रा स्‍थगित कर दी। रास्‍ते में कहीं जल क्षेत्र न मिलने की वजह से कीठम में ही वापस आकर डेरा डालना पड़ा।
मौसम का जबरदस्‍त असर पक्षियों पर होता है। आधुनिकता में लोगों ने घरों के आस-पास के पक्षियों के आशियाने को खत्‍म कर दिया है। ताला या झरना नगन्‍य हो चुके हैं। इस वजह से पक्षियों को खाने-पीने की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो गई है। मैना, बुलबुल, गौरैया, रौबिन के समान प्रवासी पक्षियों को पक्षी विहार के अलावा कोई जगह रुकने का नहीं बचा। ऐसी स्थिति में परिंदों को सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर की यात्रा रोककर वापस लौटना पड़ा।

Tuesday, January 22, 2008

जाये तो कहां जाये कामगार जमात

-अनिल प्रकाश............
बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोगों के लिये प्रवासन का सिलसिला नया नहीं है। अंग्रेज यहां के लोगों को बहला-फुसलाकर गिरमिटिया मजदूर के रूप में मारिशस, फिजी, सूरीनाम ले गये थे, जहां कोड़े मार-मार कर उनसे गन्‍ने के खेतों में काम करवाया जाता था। समय का चक्र बदला, अंग्रेज वहां से चले गये और आज गिरमिटियों की संतानें खुशहाली में जी रही हैं। यहां के श्रमिकों को असम के चाय बगानों में भी ले जाया गया था। तब से वहां जाने का सिलसिला शुरू हुआ। ईंट के भट्ठों में, रिक्‍शे ठेले में जुते हुए, दुकानों में काम करने वाले, गाय-भैंस पालकर दूध बेचने वाले तथा भवन निर्माण और सड़क बनाने के काम में लगे लोग मुख्‍यत: इसी इलाके के हैं। यहां के लोग देश के उन इलाकों में भी अपना पसीना बहाते हैं, जहां रेलें नहीं जातीं। करगिर की बर्फीली पहाडि़यों पर, मणिपुर नागालैंड और सिक्किम की घाटियों और जंगलों में, पंजाब, हरियाणा, राजस्‍थान के खेतों में, केरल के नारियल-रबर के बगानों में, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, गुजरात के समुद्र तटों और अंडमान तक हाड़-तोड़ मेहतन करके वहां की समृद्धि बढ़ाने वाले बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोग हर जगह मिल जाते हैं। लेकिन आज उन्‍हें प्रताडि़त और अपमानित होना पड़ रहा है। असम के अलगाववादी सशस्‍त्र गुटों के हाथों ये सीधे-साधे लोग मारे जाते हैं। परिणामत: लगभग एक लाख लोग वहां से भाग कर वापस आ गये हैं। अभी अहमदनगर और नासिक में इन्‍हें पीटा गया। महानगर के सौंदर्यीकरण के नाम पर स्‍लम्‍स में बसे लोगों को बार-बार उजाड़ा जाता है।

यहां के पढ़े-लिखे युवा जब काम की तलाश में, नौकरी आदि के लिए अन्‍य राज्‍यों की ओर रुख करते हैं तो बहुधा उन्‍हें अपमानित होना पड़ता है। शिवसेना वालों ने कई बार बिहारी नौजवानों को पीटा। उड़ीसा में भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी हैं। दिल्‍ली की एक तिहाई से ज्‍यादा आबादी बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश से गये लोगों की है। लेकिन दिल्‍ली में बिहारी शब्‍द एक गाली है। मुम्‍बई में यहां के कामगारों के लिये हिकारत से ‘भैया’ शब्‍द का प्रयोग किया जाता है।

बाल ठाकरे और शिव सेना का नस्‍ली दृष्टिकोण तो जगजाहिर है लेकिन दिल्‍ली में अनिवार्य पहचान पत्र के बहाने यहां के लोगों को खदेड़ने की उच्‍चस्‍तरीय साजिश और उसके पूर्व शीला दीक्षित के अनर्गल बयान उनके संकीर्ण दृष्टिकोण को परिलक्षित करते हैं। दिल्‍ली अगर देश की राजनीतिक राजधानी और मुम्‍बई आर्थिक राजधनी है तो वहां जाने, काम करने और बसने का हक सभी देशवासियों को है। जब देश की आर्थिक नीति ऐसी है कि सारी प्रगति कुछ महानगरों और थोड़े से राज्‍यों तक सिमटी हो तथा ग्रामीण क्षेत्रों और अन्‍य इलाके कंगाली, भूख और गरीबी के अंधकार में डूबे हों तो लोग रोजी-रोटी की तलाश में समृद्ध इलाकों की तरफ जायेंगे ही। बिहारी श्रमिक अपनी कमाई से बचाकर जो पैसा अपने गांव भेजते रहे हैं उसके कारण बिहार के आर्थिक जीवन में, बाजार में चहल-पहल दिखती हैं। बाहर से आनेवाले इस पैसे ने बिहारी समाज के ढ़ांचे और सामाजिक संबंधों में बड़ा सकारात्‍मक बदलाव ला दिया था। प्रवासी श्रमिकों ने रेहन में रखी अपनी जमीन छुड़ाई, महाजन का कर्जा चुकाया और थोड़ी-थोड़ी जमीन भी खरीदी और मालिक के आसरे पर निर्भर उनकी इज्‍जत और उनका जीवन मुक्ति की ओर अग्रसर हुआ था। लेकिन 1990 के बाद से जैसे-जैसे उदारीकरण वाली नीतियां आगे बढ़ीं देश में हर जगह रोजगार के अवसर घटते गये। हरियाणा और पंजाब में काफी बड़े कृषि भू-भाग की मिट्टी में क्षारीयता बहुत हो गयी है। रासायनिक खादों, कीटनाशकों और सिंचाई के अत्‍यधिक प्रयोग के कारण न केवल भूजल स्‍तर तेजी से नीचे जा रहा है, बल्कि कृषि उपज भी घटने लगी है। वहां के खेतों में फसल कटाई-दौनी के लिए बड़े-बड़े हार्वेस्‍टर कम्‍ब्राइन आ गये हैं। इन कारणों से वहां के कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की जरूरत घट गयी है। देश के अन्‍य राज्‍यों में भी कृषि क्षेत्र की हालत खराब हो गयी है। सबसे उन्‍नत माने जाने वाले आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र और पंजाब में ही किसानों ने सर्वाधिक आत्‍महत्‍याएं की हैं और कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में तो 77 प्रतिशत ग्रामीण गरीब हैं (स्रोत-एनएसएसओ)। औद्योगिक क्षेत्रों में पार्ट पुर्जों के सस्‍ते आयात और अत्‍याधुनिक टेक्‍नालाजी के प्रवेश के कारण देशभर में लाखों छोटे-छोटे कारखाने और एंसिलियरी इकाइयां बंद हैं। ‘स्‍पेशल इकॉनोमिक जोन’ बनाये जाने के कारण भी लाखों किसान मजदूर उजड़ रहे हैं और बेरोजगारों की भीड़ में शामिल हाते जा रहे हैं। यह समझना भूल होगी कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आने से या इंफॉर्मेशन टेक्‍नालाजी के विकास से गरीबी दूर होती है। हां इससे देश के पांच प्रतिशत लोगों की समृद्धि अत्‍यधिक बढ़ी है। इसके अतिरिक्‍त भी 10-15 प्रतिशत लोगों को कुछ नये प्रकार के काम मिले हैं लेकिन शेष आबादी बहुत बुरी हालत में है। राष्‍ट्रीय असंगठित क्षेत्र आयोग की 1997 की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 83 करोड़ 60 लाख आबादी घोर गरीबी में रहती है। इनकी प्रतिदिन प्रतिव्‍यक्ति खपत 20 रुपये से भी कम है। लगभग 20 करोड़ लोग तो 10 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं। तबाह होते कृषि क्षेत्र में अभी भी 65 प्रतिशत लोग हैं। औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार नहीं बढ़ रहा है। सेवा क्षेत्र की तेज प्र‍गति के बावजूद उसमें रोजगार बहुत कम है। राष्‍ट्रीय आय वृद्धि भले ही 8-9 प्रतिशत हो जाये लेकिन विषमता बढ़ती गयी और लोगों की बेरोजगारी और गरीबी का सिलसिला जारी रहा। ऐसे में जब बेरोजगारों और गरीबी का सिलसिला जारी रहा। ऐसे में जब बेरोजगार युवा या श्रमिक समृद्ध शहरों में पहुंचते हैं तो स्‍थानीय लोगों को लगता है कि वे उनका हक मारने आये हैं। इन परिस्थितियों में ही शिवसेना जैसे संगठनों को स्‍थानीय लोगों में आंचलिक असहिष्‍णुता भड़काने का मौका मिल जाता है। बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश में दुनिया की सबसे उर्वर भूमि है, विस्‍तृत बाजार और पूंजी भी मौजूद है, लेकिन गलत आर्थिक नीतियों और निकम्‍मेपन के कारण यहां का स्‍वाभाविक विकास बाधित है।

बैंकों में जमा अधिकांश पैसा बाहर चला जाता है। यहां के किसान और स्‍थानीय कारोबारियों को पांच प्रतिशत सैकड़ा/महीना सूद पर महाजनों से पूंजी लेनी पड़ती है। यही कारण है कि फलों, सब्जियों के भरपूर उत्‍पादन के बावजूद छोटे-छोटे उद्योगों का जाल नहीं फैल सका। हाईटेक उद्योग लगाने के लिए एनआरआई या बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आने से रोजगार का सृजन नहीं होगा। वे आ भी नहीं रही हैं। अकेले गुड़-खांडसारी का उद्योग लाखों हाथों को रोजगार दे सकता है।

लेकिन इसको प्रोत्‍साहन तो दूर पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। छोटे, कुटीर-लघु उद्योगों और कृषि के विकास से यहां के करोड़ों लोगों को सम्‍मानपूर्वक रोजगार मिल सकता है और उन्‍हें बार-बार की जिल्‍लत से बचाया जा सकता है।
(दैनिक जागरण के मुजफ्फरपुर संस्‍करण से साभार।)

Friday, January 11, 2008

प्रदूषण की देन तिलपिया निगल गई यमुना की मछली

मथुरा से इटावा तक अब मांसाहारी तिलपिया का साम्राज्‍

-सन्‍मय प्रकाश .....
प्रदूषण की देन तिलपिया ने यमुना में अन्‍य प्रजाति की मछलियों पर कहर बरपा दिया है। शरीर पर कांटे वाली इस मछली के कारण देसी मछलियों का अस्त्वि खतरे में पड़ गया है। यमुना से मछलियों की 10 से अधिक प्रजातियां लुप्‍त हो चुकी हैं। जबरदस्‍त प्रदूषित जल में रहने वाली तिलपिया से कई खतरे को देखते हुये केन्‍द्र सरकार ने इसके पालन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। यमुना और इससे निकलने वाली नहरों में केवल इसी का साम्राज्‍य है। सामान्‍य मछलियों प्रदूषण से तो खत्म हो रही है, दूसरी ओर दुश्‍मन तिलपिया उसकी जान ले रही है। मछली को पसंद न किये जाने से मछुआरे इसे पकड़ते भी नहीं हैं।
मथुरा, आगरा और फिरोजाबाद से गुजर रही यमुना में केवल तिलपिया मछली ही देखने मिल रही हैं। अफ्रीका और पूर्व मध्‍य एशियाई देशों में पाई जाने वाली यह मछली अति प्रदूषित जल में भी जीवित रह सकती है। देसी मछलियां वर्ष में एक बार प्रजनन करती है, जबकि तिलपिया दो बार। दोगुनी गति से इसकी वृद्धि होती है। भारत में प्रतिबंध के बावजूद यमुना में इसके फैलने का कारण उत्‍तर प्रदेश का मत्‍स्‍य विभाग को समझ नहीं आ रहा है। माना जा रहा है कि किसी ने तालाब में इसे पाल हो और बरसात में वहां से बहकर यह नदी में आ गई। जबरदस्‍त प्रदूषण और तिलपिया के आक्रामक रुख से आगरा और इसके आस-पास के इलाकों से गुजर रही यमुना से रेहू, नैन, कतला, सिल्‍वर कार्प, ग्रास काल्‍प, चाइनीज कार्प, टैंगन, सुइया, लाची, सॉल, चिलवा और टेंगडि़या समेत कई प्रजाति की मछलियां लगभग विलुप्‍त हो चुकी हैं। मत्‍स्‍य विभाग के आगरा के निरीक्षक रघुवीर कुमार का कहना है कि तिलपिया के खाने से पेट के अल्‍सर का खतरा रहता है। स्‍वास्‍थ्‍य और काफी तेजी से प्रसार होने की वजह से ही केन्‍द्र सरकार ने इस मछली पर प्रतिबंध लगा दिया था।
मछुआरा चंदन और बंटू ने बताया कि उसके खाने के लिये मछली का संकट हो गया है। जाल फेंकने पर केवल तिलपिया ही पकड़ में आती है। इसे सावधानी से न पकड़ने पर कांटे से उंगलियां फट जाती हैं। इसका स्‍वाद भी अच्‍छा नहीं है। नदी से मछली को निकालने के बाद तीन-चार घंटे में ही गंद और सड़न शुरू हो जाती है। बाजार में तिलपिया पांच से दस रुपये किलोग्राम की दर से कोई खरीदने को तैयार नहीं होता है। जबकि देसी मछलियों की कीमत 45 से 70 रुपये तक है। प्रशासन से ठेका मिलने के बाद ठेकेदार भी परेशान हैं। पर्यावरण की दृष्टि से सबसे चिंताजनक बात है कि अगर इस मामले पर कोई कदम न उठाया गया तो मछली यमुना के माध्‍यम से इटावा पहुंचकर चंबल में फैल जायेगी। इसके बाद इलाहाबाद के संगम के माध्‍यम से गंगा तक चली जायेगी। गौरतलब है कि वर्ष 2007 में चार बार मछलियां प्रदूषण की वजह से मर चुकी है। लेकिन तिलपिया मछलियों की मौत ज्‍यादा संख्‍या में नहीं हुई। हां, देसी मछलियां जरूर खत्‍म हो गई।
(हिन्‍दुस्‍तान के आगरा संस्‍करण से साभार)