Wednesday, February 6, 2008

फिर बर्ड फ्लू का खौफ

-डा. ए. के. अरुण

सन्‌ 2004 में जब बर्ड फ्लू फैला था तब अपने देश में ज्यादा ही अफरा-तफरी थी। देश ही नहीं पूरे महाद्वीप सहित लगभग दुनिया भर में हाय-तौबा मच गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) ने ‘रेड अलर्ट’ जारी कर दिया था। इस रोग के आंतक की वजह से एशियाई देशों को 50 करोड़ डालर से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा था। इस बार भी धीरे-धीरे बर्ड फ्लू उसी अराजक स्थिति की तरफ बढ़ता प्रतीत हो रहा है।

इस बार भी बर्ड फ्लू के लिए वायरस एच 5 एन 1 को ही जिम्मेवार बताया जा रहा है। खबर है कि यह खतरनाक फ्लू वायरस बंगाल के अलावे बिहार, मेघालय, झारखण्ड, असम, त्रिपुरा, उड़िसा व अन्य प्रदेशों में भी पहुंच चुका है। हालांकि केन्द्र सरकार ने सभी प्रभावित क्षेत्रों में कोई 468 रैपिड रिस्पांस टीम भेज दी है जो ‘बर्ड फ्लू’ पर पैनी नजर रखे हुए है। आंकड़ों को देखें तो डब्लू.एच.ओ. के एपिडेमिक एण्ड पान्डेमिक एलर्ट एण्ड रिस्पान्स (ई.पी.आर.) के अनुसार 24 जनवरी 2008 तक भारत में बर्ड फ्लू से किसी व्यक्ति के मरने की खबर नहीं है जबकि इन्डोनेशिया में तीन संक्रमित व्यक्ति तथा वियतनाम मे एक कुल मिला कर चार के मरने की खबर है।

फ्लू वास्तव में एक तरह से श्वसन तंत्र का संक्रमण है। इस संक्रमण के लिए एन्फ्लूएन्जा वायरस का ए, बी तथा सी आदि टाइप जिम्मेवार होता है। इस संक्रमण में अचानक ठंड लगना, बदन दर्द, बुखार, मांशपेशियों में दर्द खांसी आदि लक्षण देखे जाते हैं। इसके कई प्रकार जैसे एच1 एन1, एच2 एन2, एच3 एन2 आदि कई बार दुनिया में तबाही मचा चुके हैं। इन वायरस के कहर से 1918-19 में लगभग 50 करोड़ लोग चपेट में आए थे जिन में से 2 करोड़ लोगों की तो मौत हो चुकी थी। इसमें कोई 60 लाख लोग तो भारत में मरे थे। उस समय इसे ‘स्वेन फ्लू’ का नाम दिया गया था। अब इस वायरस ने अपनी संरचना बदल ली है। वैज्ञानिकों की मानें तो इस नये फ्लू वायरस का प्ररिरोधी टीका बनाने में वक्त लगेगा। अब फ्लू वायरस ने अपनी संरचना बदल कर एच5, एन1 कर ली है। जाहिर है वायरस के तेजी से बदलने से इसके बचाव के उपायों को शीघ्र ढूढ़ना भी आसान नहीं है। ये वायरस महज महामारी ही नहीं वैश्विक महामारी फैलाने की क्षमता रखते हैं। ये वायरस बहुत कम समय में 3 कि.मी. से 400 कि.मी. तक की दूरी तक पहुंच जाते हैं। ये सूअर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, पालतु मुर्गे-मुर्गियों, पालतु पक्षियों आदि के माध्यम से संक्रमण फैला सकते हैं। एच तथा एन एन्टीजन के ये वायरस विशेष रूप से पालतु जानवरों को अपना वाहक बना लेते हैं। और फिर आदमियों में जाकर जानलेवा उत्पात मचाते हैं।

वि.स्वा.सं. हालाकि दावा कर रहा है कि इस ÷बर्ड फ्लू' के टीके देर-सवेर बना लिए जाएंगे लेकिन वैज्ञानिक और विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे तैयार करने में अभी वक्त लगेगा। वि.स्वा.सं. से जुड़े वैज्ञानिकों की मानें तो ‘बर्ड फ्लू’ के वायरस की सरंचना में तेजी से बदलाव के कारण इससे बचाव का टीका बनाने में दिक्कत आ रही है। यहां वैज्ञानिकों की यह भी आशंका है कि बर्ड फ्लू का वायरस सामान्य एन्फ्लूएन्जा से मिलकर कोई और नई जानलेवा बीमारी को भी जन्म दे सकता है। यह बीमारी इन्सान को हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। अभी तक यह रोग मुर्गियों से दूसरे पक्षियों में ही हो रहा है लेकिन इसके मुर्गियों से आदमी में संक्रमण की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता।

इधर एशियाई देशों में सार्स, बर्ड फ्लू, इबोला वायरस, एन्थे्रक्स आदि रहस्यमय व नये घातक रोगों का आतंक कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। ये रोग महज बीमारी फैलाकर लोगों को मारते ही नहीं बल्कि वहां की अर्थ व्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। सन्‌ 2003 में फैले ‘सार्स के आतंक’ ने एशियाई देशों के कोई 30 अरब डालर का नुकसान पहुंचाया था। सन्‌ 2004 में बर्ड फ्लू के आतंक ने थाइलैण्ड की अर्थ व्यवस्था को धूल चटा दिया था, जबकि उस वर्ष बर्ड फ्लू के 17 मामलों में वहां 12 मृत्यु दर्ज हुई थी। धीरे-धीरे भारत में भी मुर्गी पालन एक बड़े लघु उद्योग के रूप में उभर रहा है। ऐसे में बर्ड फ्लू का आतंक यहां कैसा कहर बरपा सकता है इसका अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद दुनिया में कुछ खास प्रकार की बीमारियों का जिक्र ज्यादा होने लगा है। भारत में अब कई ऐसे रोग अब मुख्य चर्चा में है लेकिन अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इसे बेहद खतरनाक बीमारी बताया गया है। यहां पहले से ही व्याप्त मलेरिया, कालाजार, टी.बी., डायरिया आदि के खतरनाक होते जाने की उतनी चर्चा नहीं होती जितनी इन अर्न्तराष्ट्रीय रोगों की हो रही है। एच.आई.वी./एड्स या हिपेटाइटिस-बी जैसे रोग ही देश के स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं। जबकि इन रोगों का स्थाई उपचार अभी तक ढूढ़ा नहीं जा सका है। वैश्वीकरण के दौर की महामारियों को देखें तो इन रोगों के लक्षण और उपचार यों तो अलग-अलग हैं लेकिन एक बात सब में समान है। वह है- इनका अर्न्तराष्ट्रीय खौफ और प्रचार। कोई 13 वर्ष पूर्व जब गुजरात के सूरत में अचानक प्लेग का आतंक फैला था तब ऐसी अफरा-तफरी मची थी कि भारत का ‘मैनचेस्टर’ कहा जाने वाला ‘सूरत’ बेरौनक हो गया था। कोई चार लाख लोग (लगभग दो तिहाई आबादी) कुछ ही दिनों में सूरत छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। करोड़ों को कारोबार चौपट हो गया था।

‘सार्स’ ने चीन की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया था। बर्ड फ्लू ने थाइलैण्ड को हिलाया। वियतनाम तो वैसे ही मृतप्राय है। इराक, अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया सब कुछ न कुछ ‘रहस्यमय’ व ‘घातक’ बीमारियों की चपेट में हैं। समझा जाना चाहिए कि जब देशों की अर्थव्यवस्था वैश्विक हो रही तो वैश्विक महामारियों से भला कैसे बचे रहा जा सकता है। इससे उलट भारत में मलेरिया टी.बी. कालाजार दिमागी बुखार आदि ऐसे रोग हैं जिन्हें वैश्वीकरण के दौर में ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही। जबकि इन रोगों से होने वाली इन्सानी मौतें लाखों में है। मलेलिया को ही ले तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 लाख बच्चे इसके चपेट में आते हैं। लेकिन एच.आई.वी. के दहशत ने वहां मलेरिया को नजर अन्दाज कर दिया है।

अब सवाल है कि इन अर्न्तराष्ट्रीय रोगों का उपचार क्या है? जाहिर है इन रहस्यमय रोगों के रहस्यमयी उपचार का ‘सीक्रेट’ दुनिया के चन्द शक्तिशाली दवा कम्पनियों के पास ही है और उनके पास इन दवाओं पर एकाधिकार भी है। इन कम्पनियों ने तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों के पेटेन्ट कानून को अपने फायदे के लिए बदलवा भी लिया है। पोलियों को ही देखें तो 10 हजार करोड़ों से भी ज्यादा रुपये खर्च कर हम पोलियों से भारत को मुक्त नहीं करा पाए हैं। बल्कि पोलियों की स्थिति और खतरनाक होती जा रही है। क्योंकि पोलियो के वायरस खतरनाक स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि पोलियो उन्मुलन का हम अर्न्तराष्ट्रीय फार्मूला ही प्रयोग कर रहे हैं। यह भी प्रश्न है कि इन ग्लोबल बीमारियों की सही दवा कैसे ढूढ़ी जाए? देश के कर्णधारों व योजनाकारों को यह समझना होगा। इन कथित रोगों की असली दवा तलाशनी होगी। अमीर देशों के हथकण्डे और ग्लोबल रोगों के आपसी रिश्ते को समझना होगा। जब तक रोग के सही कारण का पता नहीं लग जाता तब तक सही उपचार नहीं किया जा सकता। बर्ड फ्लू से डरने की बजाय उसका मुकाबला किया जाना चाहिए। यह जानलेवा रोग जरूर है लेकिन लाइलाज नहीं।
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त चिकित्सक एवं जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं।)

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