-स्वतंत्र मिश्र...
गुलबर्ग, कर्नाटक में फरवरी माह में छह बेरोजगार नवयुवकों ने एक समारोह के दौरान आत्महत्या की कोशिश की। स्वर्ण ग्रामोदय परियोजना का उद्घाटन करने के लिए कर्नाटक के श्रीनिवास सरदागी यहां पहुंचे हुए थे। 24 फरवरी को राष्ट्रपति कलाम के कार्यक्रम में पहुंचते ही इंड्रस्ट्रियल ट्रेनिंग कोर्स (आईटीआई) कर चुके छह युवक नौकरी की मांग करते हुए जमकर नारेबाजी की। वे चाह रहे थे कि राष्ट्रपति उनकी पीड़ा सुनें और एक बेरोजगार युवक की बेचैनी महसूस करें। इस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी भी गांव में मौजूद थे। अपनी बात राष्ट्रपति तक न रख पाने के बाद युवकों ने वही जहर पी लिया। बाद में डॉक्टरों ने उन्हें बचा लिया।
इस खबर को मीडिया ने तब्बजो नहीं दी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुप्पी साध लेने की पूर्ववत योजना पर डटे रहना उचित समझा। प्रिंट मीडिया ने भी इस खबर को सार-संक्षेप में ही जगह दी। दरअसल, आत्महत्या अपने आप में गंभीर मसला है। कायदे से कहा जाय तो आत्महत्या एक जुर्म है। यहां सवाल उठता है कि आखिर देश की फिजां में क्या घुल गया है कि देश के बच्चे, युवक, युवतियां और किसान मरने को मजबूर हो रहे हैं? दिक्कतों से जूझते-जूझते रास्ता नहीं खोज पाने की स्थिति में ऐसा करने की बात तो समझ में आती है। परंतु आत्महत्या अगर योजनाबद्ध तरीके से या यूं कहें कि विरोध के तौर पर प्रकट होने लगे, तो इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को संवेदना के स्तर पर अकेलापन महसूस होने लगता है। उसे ढाढस बंधाने वाला कोई कंधा नहीं हासिल होता है। समाज में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दिक्कतों के बढ़ने से आदमी अकेला तो निश्चित तौर पर होता चला जा रहा है। साथ ही देश में राजनीतिक स्तर पर भी संवेदनशीलता में भारी गिरावट आयी है। अन्यथा 50 या 60 के दशक में इतनी बड़ी घटना होती तो कम से कम राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन ही जाती। इसे एक-दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। याद हो, लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्रित्व काल में ट्रेन दुर्घटना हुई थी। उस हादसे में लोगों की जानें गयी थी। उन्होंने घटना की जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। दरअसल उस समय राजनीति का मतलब समाज सेवा हुआ करता था।
दूसरे उदाहरण से आप सास्कृतिक बुनावटों के आधार पर तात्कालिक समाज को समझ सकेंगे। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन अपनी अमर कृति मधुशाला का पाठ मंचों पर अक्सर किया करते थे। इसी सिलसिले में वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे। रास्ते में ट्रेन रुकी तो एक युवक दौड़ता हुआ उनसे मिलने आया। दूसरे दिन बच्चन जी को पता चला कि उस युवक ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने वाला युवक प्रेम में हारा हुआ था। बच्चन की कविता में उसे अपनी पीड़ा का स्वर सुनाई पड़ा था। आपको मालूम हो कि इस घटना के बाद बच्चन ने लंबे समय तक मंच पर कविता पाठ नहीं किया। आज राजनीति अधिकांश लोगों के लए सत्ता हासिल करने का एक औजार मात्र है। अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री आम जनता को यह सलाह दे बैठते हैं - 'महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। इसलिए देश के लोगों को कठिनाइयों के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए।' दरअसल, आत्महत्या जैसे गंभीर मसले की पड़ताल समाज में हो रहे चहुमुखी क्षरण के आधार पर की जानी हिचाए, क्योंकि सामान्य रूप से कोई मरना नहीं चाहता है। भारत में रोजगारहीनता से पीडि़त युवक और युवतियों को भी इससे निकल पाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं पर तो देश को उद्वेलित हो उठना चाहिए था, लेकिन ऐसी कारूणिक घटनाओं पर राष्ट्रीय बहस तक भी आयोजित नहीं हो पाती है। सकल विकास दर और सूचकांक में ऐतिहासिक उछाल हासिल करने की बातें, यहां झूठी और फरेबी लगने लगती है। देश के विकास का मतलब कुछ लोगों का विकास कतई नहीं हो सकता है। देश के विकास का मतलब तो यह होना चाहिए कि विकास की धारा समाज के अंतिम श्रेणी के लोगों तक पहुंचे। नई आर्थिक उदारीकरण नीति के लागू होने के बाद आत्महत्या जैसी घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हुआ है। दुख की बात तो यह है कि देश के कृषि मंत्री किसानों को आय का दूसरा रास्ता ढूंढने की सलाह दे रहे हैं। ऐसी संवेदनहीन परिस्थितियों से समाज को बचाने के लिए पूरे नागरिक समाज को सोचने को मजबूर होना पड़ेगा।
गुलबर्ग, कर्नाटक में फरवरी माह में छह बेरोजगार नवयुवकों ने एक समारोह के दौरान आत्महत्या की कोशिश की। स्वर्ण ग्रामोदय परियोजना का उद्घाटन करने के लिए कर्नाटक के श्रीनिवास सरदागी यहां पहुंचे हुए थे। 24 फरवरी को राष्ट्रपति कलाम के कार्यक्रम में पहुंचते ही इंड्रस्ट्रियल ट्रेनिंग कोर्स (आईटीआई) कर चुके छह युवक नौकरी की मांग करते हुए जमकर नारेबाजी की। वे चाह रहे थे कि राष्ट्रपति उनकी पीड़ा सुनें और एक बेरोजगार युवक की बेचैनी महसूस करें। इस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी भी गांव में मौजूद थे। अपनी बात राष्ट्रपति तक न रख पाने के बाद युवकों ने वही जहर पी लिया। बाद में डॉक्टरों ने उन्हें बचा लिया।
इस खबर को मीडिया ने तब्बजो नहीं दी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुप्पी साध लेने की पूर्ववत योजना पर डटे रहना उचित समझा। प्रिंट मीडिया ने भी इस खबर को सार-संक्षेप में ही जगह दी। दरअसल, आत्महत्या अपने आप में गंभीर मसला है। कायदे से कहा जाय तो आत्महत्या एक जुर्म है। यहां सवाल उठता है कि आखिर देश की फिजां में क्या घुल गया है कि देश के बच्चे, युवक, युवतियां और किसान मरने को मजबूर हो रहे हैं? दिक्कतों से जूझते-जूझते रास्ता नहीं खोज पाने की स्थिति में ऐसा करने की बात तो समझ में आती है। परंतु आत्महत्या अगर योजनाबद्ध तरीके से या यूं कहें कि विरोध के तौर पर प्रकट होने लगे, तो इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को संवेदना के स्तर पर अकेलापन महसूस होने लगता है। उसे ढाढस बंधाने वाला कोई कंधा नहीं हासिल होता है। समाज में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दिक्कतों के बढ़ने से आदमी अकेला तो निश्चित तौर पर होता चला जा रहा है। साथ ही देश में राजनीतिक स्तर पर भी संवेदनशीलता में भारी गिरावट आयी है। अन्यथा 50 या 60 के दशक में इतनी बड़ी घटना होती तो कम से कम राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन ही जाती। इसे एक-दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। याद हो, लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्रित्व काल में ट्रेन दुर्घटना हुई थी। उस हादसे में लोगों की जानें गयी थी। उन्होंने घटना की जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। दरअसल उस समय राजनीति का मतलब समाज सेवा हुआ करता था।
दूसरे उदाहरण से आप सास्कृतिक बुनावटों के आधार पर तात्कालिक समाज को समझ सकेंगे। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन अपनी अमर कृति मधुशाला का पाठ मंचों पर अक्सर किया करते थे। इसी सिलसिले में वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे। रास्ते में ट्रेन रुकी तो एक युवक दौड़ता हुआ उनसे मिलने आया। दूसरे दिन बच्चन जी को पता चला कि उस युवक ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने वाला युवक प्रेम में हारा हुआ था। बच्चन की कविता में उसे अपनी पीड़ा का स्वर सुनाई पड़ा था। आपको मालूम हो कि इस घटना के बाद बच्चन ने लंबे समय तक मंच पर कविता पाठ नहीं किया। आज राजनीति अधिकांश लोगों के लए सत्ता हासिल करने का एक औजार मात्र है। अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री आम जनता को यह सलाह दे बैठते हैं - 'महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। इसलिए देश के लोगों को कठिनाइयों के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए।' दरअसल, आत्महत्या जैसे गंभीर मसले की पड़ताल समाज में हो रहे चहुमुखी क्षरण के आधार पर की जानी हिचाए, क्योंकि सामान्य रूप से कोई मरना नहीं चाहता है। भारत में रोजगारहीनता से पीडि़त युवक और युवतियों को भी इससे निकल पाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं पर तो देश को उद्वेलित हो उठना चाहिए था, लेकिन ऐसी कारूणिक घटनाओं पर राष्ट्रीय बहस तक भी आयोजित नहीं हो पाती है। सकल विकास दर और सूचकांक में ऐतिहासिक उछाल हासिल करने की बातें, यहां झूठी और फरेबी लगने लगती है। देश के विकास का मतलब कुछ लोगों का विकास कतई नहीं हो सकता है। देश के विकास का मतलब तो यह होना चाहिए कि विकास की धारा समाज के अंतिम श्रेणी के लोगों तक पहुंचे। नई आर्थिक उदारीकरण नीति के लागू होने के बाद आत्महत्या जैसी घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हुआ है। दुख की बात तो यह है कि देश के कृषि मंत्री किसानों को आय का दूसरा रास्ता ढूंढने की सलाह दे रहे हैं। ऐसी संवेदनहीन परिस्थितियों से समाज को बचाने के लिए पूरे नागरिक समाज को सोचने को मजबूर होना पड़ेगा।
4 comments:
सही मुद्दा उठाया आपने.सरकार तो सरकार अब आम आदमी को भी इन खबरों से कुछ फरक नहीं पढ़ता.
बेहद संवेदनशील मसला है यह। किसानों की खुदकुशी पर तो राजनीतिक चर्चा हो जाती है, मगर नौजवानों में बढ़की खुदकुशी पर हमारे आका सोचना तक गवारा नहीं करते।
आत्महत्या एक शगल बनता जा रहा है. क्या वाकई हम इतना फंस गये हैं कि मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा?
बहुत सही मुद्दा उठाया आपने , आत्म हत्या से सरकार क्या हिलेगी जहाँ चोर उच्चके भरे बैठे है, जो मौत का खेल खेल कर ही सत्ता आसीन हुए है। हैरानी तो तब होती है जब कोई मिडिया का व्यक्ती अपने चैनल की टी आर पी बढ़ाने की खातिर मजबूर हताश लोगों को आत्म हत्या करने कओ उकसाता है
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