Tuesday, March 18, 2008

बेतरतीब शहरीकरण का खामियाजा भुगतता आगरा का एक हिस्सा

-सन्‍मय प्रकाश . . . .
आगरा के बेतरतीब शहरीकरण का खामियाजा यहां का एक हिस्सा झेल रहा है। शहर का सारा कचरा ताजमहल से करीब पांच किलोमीटर दूर नगला रामबल के पास डाला जाता है। करीब एक किलोमीटर के व्‍यास में फैला यह खत्‍ताघर (कूड़ाघर) ताजमहल से भी ऊंचा हो गया है। खत्‍ताघर की गंदगी, दुर्गंध और कूड़े के जलने से निकली जहरीली गैसों ने पिछले छह महीने में 13 लोगों की जान ले ली है। सात सौ की यह आबादी जिंदगी और मौत से लड़ रही है। 11 मार्च से अब तक तीन बच्‍चे और दो वृद्ध मौत के मुंह में समा चुके हैं। यहां लोगों को अचानक दस्‍त, उल्‍टी और बुखार की शिकायत हुई और उसके आधे से दस घंटे के भीतर उन्‍होंने दम तोड़ दिया। आगरा मेडिकल कॉलेज की 17 मार्च की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 138 घरों के 112 लोग गंभीर रूप से बीमार हैं।

शहर की गंदगी की बोझ उठा रहे कूड़ाघर ने नगला रामबल को महामारी की सौगात दी है। यह चेतावनी है कि बिना किसी प्‍लानिंग के शहरीकरण की अंधी दौड़ हमें किस मुकाम पर ले जायेगी। 11 मार्च को एक ही दिन दो सगे भाइयों और एक वृद्ध की मौत के बाद प्रशासन ने बैठक की, लेकिन अधिकारियों ने अगले छह महीने के लिये इसी क्षेत्र में शहर का कचरा डालने का फरमान सुना दिया। शायद उन्‍हें इसकी चिंता नहीं है कि उनके फैसले से कई और लोगों की मौत हो सकती है। इसके बाद दो और मौतें हो गईं। कूड़ाघर ने भूमिगत जल भी पीने लायक नहीं छोड़ा है।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने वर्ष 2003 में कूड़ाघर को शहर से दूर स्‍थानांतरित करने का आदेश दिया था। यह उसी फैसले का हिस्‍सा था, जिसमें प्रदूषण से ताजमहल को बचाने के मामले की सुनवाई हुई थी, लेकिन आज तक नया लैंड फिल साइट (कूड़ाघर) नहीं तैयार किया गया। नगर निगम के ट्रक कभी यमुना में शहर की गंदगी डालते हैं तो कभी नगला रामबल के पास के इलाके में। 14 दिसम्‍बर को उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बीमारियों के खतरों की संभावना जताते हुये कूड़ाघर स्‍थानांतरित करने का नोटिस नगर निगम और आगरा प्रशासन को भेजा, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया और इसका हश्र नगला रामबल में मौत दर मौत बनकर सामने आया है। इतना सब कुछ होने के बावजूद सरकार और प्रशासन का इस दिशा में कोई प्रयास दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल, इस रवैये का आंतरिक कारण सामंतवादी मनोवृत्ति भी है। क्षेत्र में ज्यादातर आबादी दलित है, जो रोज मजदूरी करके पेट पालती है। इनके पास दवा के लिये भी रुपये नहीं हैं। अगर यहां शहर का संभ्रांत परिवार निवास करता तो कूड़घर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ ही हट चुका होता और महामारी न फैलती। मौत की खबरें अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करणों में काफी छप रही हैं, लेकिन ताज्‍जुब की बात है कि ताजमहल के शहर में इस घटना को लेकर चर्चा तक नहीं हो रही। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया भी इसे तरजीह नहीं दे रहा है।

कूड़े के निपटारे की समस्‍या हर जगह है। कुछ शहरों में इससे खाद, पेट्रोल और बिजली बनाकर लाभ कमाया जा रहा है। नागपुर में कचरे के प्‍लास्टिक से पेट्रोल बनाने की बात हाल ही में सामने आयी है। शिमला नगर निगम ने कचरे से बिजली बनाने का ठेका जयपुर की सीडीसी कंपनी को सौंपा है। अगर कुछ ऐसी ही सोंच के साथ आगरा में भी कचरे का समाधान कर लिया जाये तो नगला रामबल जैसे क्षेत्र बर्बाद नहीं होंगे और न ही लोगों को जिंदगी गंवानी पड़ेगी।

कहां खो गई है आगरा शहर की संवेदना

-प्रेम पुनेठा . .
‘दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है?’ यह शेर आगरा के राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों पर सटीक उतरता है। शहर भले ही वाहनों की तेज रफ्तार देख रहा हो, लेकिन यहां के लोगों में रवानगी जैसे थम गई है। नहीं तो पूरी बस्‍ती जिंदगी की जंग लड़ रही होती और कहीं कोई हलचल तक नहीं होती।

खत्‍ताघर (कूड़ाघर) की गंदगी पिछले दो महीने में नगला रामबल में एक दर्जन से ज्‍यादा लील गई, लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों और शहरवासियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगा। जब एक ही रात में दो बच्‍चों सहित तीन लोगों की मौत हो गई और कई कई अन्‍य मरणासन्‍न हो गए तब मोहल्‍लावासियों का आक्रोश फूटा और प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद शुरू हो गए विभागों के दौरे। राजनेताओं का आगमन सबसे बाद में हुआ और वे सिर्फ बयान देने तक सीमित रह गए। यह पूरी घटना नगर विकास मंत्री नकुल दूबे के आगरा आने के दूसरे दिन होती है।

कहने को यहां एक नगर निगम है, जिस पर शहर की सफाई व्‍यवस्‍था को दुरुस्‍त रखने की जिम्‍मेदारी है। जनता से टैक्‍स वसूल कर वेतन पाने वालों की वहां एक लंबी फौज है, लेकिन काम नहीं होता तो दिखाई नहीं देता। नगर निगम में एक महापौर भी हैं, जो ताजमहल के विश्‍व के सात अजूबों में शुमार होने पर अपनी पीठ थपथपा लेती हैं, पर उसी ताज के पिछवाड़े बजबजाती गंदगी से लगातार होती मौतें उन्‍हें बेचैन नहीं करतीं। सुना है कि पर्यटन बढ़ाने के लिए वे विदेश यात्रा भी करने वाली हैं पर शहर में घूमने का उन्‍हें समय नहीं। एक सांसद (राज बब्‍बर) भी हैं जो बॉलीवुड के ग्‍लैमर की दुनिया में ही रहते हैं, जनाब जनता की भी कुछ समस्‍याएं हैं आप कब इनसे रूबरू होंगे।

यहां राजनीतिक पार्टियां भी हैं। मुंबई में उत्‍तर भारतीयों पर हमलों के विरोध में सड़कों पर आने वाली सपा को इन मौतों से कोई लेना देना नहीं तो दलितों के नाम पर काबिज बसपा चिंतामुक्‍त है।
आखिर ये जाएंगे कहां। भाजपा के पास राम के नाम पर मर-मिटने वाले जियाले तो हैं लेकिन इंसानों की मौत उन्‍हें विचलित नहीं करती। सर्वहारा के हितैषी कम्‍युनिस्‍ट भी हैं लेकिन अब गरीबों के पक्ष में उनके मोर्चे नहीं लगते। सामाजिक संगठन हैं, लेकिन उनका सारा समाज सिर्फ उनकी जाति है। शहर की फिज़ा में अजीब भी मुर्दानगी क्‍यों छाई हुई है

Friday, February 15, 2008

जहरीली फूगू मछली यमुना में

-सन्‍मय प्रकाश
जहरीली मछली यमुना में आ चुकी है। मछुआरों की जाल में बुधवार को ताजमहल के पास फूगू नामक मछली फंस गई। इस जापानी मछली के मुंह के नीचे गेंद की तरह बनावट है। विशेषज्ञों के अनुसार इस मछली के लीवर, अंडाशय और स्किन में 'टेट्रोडोटॉक्‍सीन' नामक जहरीला पदार्थ होता है। यह जहर विद्युत गति से दिमाग के सेल में सोडियम के चैनल को ब्‍लॉक कर देता है। साथ ही मांसपेशी पैरलाइज हो जाता है और व्यक्ति को सांस लेने में दिक्‍कत होने लगती है। 24 घंटे के भीतर ही मछली खाने वाले की मौत हो जाती है। यमुना में इस मछली के पाया जाना खतरनाक संकेत माना जा रहा है।

फिशरीज इंस्पेक्‍टर रघुवीर सिंह के मुताबिक 'टेट्रोडोटॉक्‍सीन' की वजह से मछली को खाने के तुरंत बाद व्‍यक्ति को सांस लेने और बोलने में समस्या उत्‍पन्‍न हो जाती है। 50 से 80 प्रतिशत लोग खाने के 24 घंटे के भीतर मर जाते हैं। थाइलैंड में पिछले वर्ष अज्ञात विक्रेताओं ने इस मछली को लोगों में बेच दिया था और इससे 15 लोगों की मौत हो गई। 150 लोगों को अस्पतालों में भर्ती कराया गया था।

अब सवाल उठने लगा है कि आखिर यह मछली यमुना में कैसे आई। संभव है कि विशेष प्रकार के मछली पालने के शौकीनों ने इस भारत में लाया हो और बाद में इसे नदी में छोड़ दिया गया हो। यह जानबूझ कर यमुना में अन्‍य जीवों को नष्‍ट करने की शरारत हो सकती है। यमुना की मछलियों को खाने वालों के लिये जीवन और मौत का संकट संकट उत्‍पन्‍न हो गया है। जहरीली मछली को खाने लायक पकाने के लिये जापान में लाइसेंसधारी शेफ होते हैं। उन्‍हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। वह जहरीला पदार्थ हटाकर मछली को खाने योग्‍य बनाते हैं। लेकिन जहर बच जाने की स्थिति में हर वर्ष भारी संख्‍या में लोग मरते हैं। डॉक्‍टरों ने इस मछली को न खाने और मिलने पर जमीन में गाड़ देने की हिदायत दी है।

जापानी मछली के यमुना में मौजूदगी का मतलब है कि इससे जुड़ी नदियों में भी वह फैल चुकी है। चंबल में घड़ि‍यालों की मौत का राज प्राणघातक फूगू मछली भी हो सकती है। यमुना और चंबल के संगम स्‍थान इटावा में अब तक करीब दो डॉल्फिन और 92 घड़ि‍याल मर चुके हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की टीम भी अब तक मृत्‍यु का मूल कारण नहीं पता लगा सकी है। हालांकि घड़ि‍यालों में लेड और क्रोमियम भारी मात्रा में पाया गया है। संभावना व्‍यक्‍त की जा रही है कि फूगू मछली के खाने से भी जल के जीवों की मौत हो रही है।

Tuesday, February 12, 2008

होम्‍योपैथी में है बर्ड फ्लू की प्रिवेंटिव दवा

-सन्‍मय प्रकाश
एवियन एंफ्लूएंजा (बर्ड फ्लू) से बचाव के लिये लाखों मुर्गियों को मारने और दहशत में रहने की जरूरत नहीं है। होम्‍योपैथी दवा की दो बूंद इस बीमारी का बचाव और इलाज कर सकती है। डॉक्‍टरों का दावा है कि ‘एंफ्लूएंजिनम-30’ व कुछ अन्‍य दवाएं मुर्गों और मनुष्‍यों को दी जाए तो बर्ड फ्लू का संक्रमण नहीं होगा। डॉक्‍टरों का कहना है कि सरकार अगर ध्‍यान दे तो पश्चिम बंगाल से बिहार की ओर बढ़ रहे बर्ड फ्लू को समाप्‍त किया जा सकता है। इससे राज्‍यों को हो रहे आर्थिक नुकसान को भी रोका जा सकेगा।

बर्ड फ्लू की वजह से पूरे देश में अधिकतर लोगों ने चिकन खाना छोड़ दिया है। परिणामस्‍वरूप पोल्‍ट्री उद्योग पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्‍तर प्रदेश व अन्‍य राज्‍यों के गांवों के घर-घर का यह उद्योग खत्‍म होता जा रहा है। पश्चिम बंगाल में अब तक कुल 37.82 लाख पक्षियों को मारा जा चुका है। इसके अलावा 80,033 किलोग्राम मुर्गी और 14,89,524 अंडों को नष्‍ट किये जा चुके हैं।

पोस्‍ट ग्रेजुएट इंस्‍टीट्यूट ऑफ होम्‍योपैथी, इलाहाबाद के निदेशक डॉ. एसएन सिंह, आगरा के चिकित्‍सक डॉ. पार्थ सारथी शर्मा और प्रसिद्ध चिकित्‍सक डॉ. रामजी दुबे ने दावा किया है कि ‘एंफ्लूएंजिनम-30’ दवा खाने के बाद किसी को बर्ड फ्लू नहीं होगा। डॉ. पार्थ सारथी के अनुसार मुर्गों को मारना इस रोग से बचाव का एक बहुत महंगा तरीका है। साथ ही इसे मारने के दौरान कई असावधानियां बरती जा रही हैं। ऐसे समय में होम्‍योपैथी दवा की दस बूंदें पानी में डालकर मुर्गों को पिला देनी चाहिए। इससे प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और वायरस का संक्रमण नहीं होता है। इसी दवा को चिकन गुनिया और डेंगू से बचने के लिये भी दिया जाता है। वर्ष 2006 में आगरा में ‘एंफ्लूएंजिनम-30’ का प्रयोग कर हजारों लोगों ने दोनों बीमारियों की प्र‍तिरोधक क्षमता बना ली थी।

डॉ. रामजी दुबे का मानना है कि मुर्गों को मारना अच्‍छा विकल्‍प नहीं है। इस तरह हम छोटे-छोटे उद्योगों को तबाह कर रहे हैं। स्‍वस्‍थ मुर्गों व लोगों को प्रिवेंटिव दवा दी जानी चाहिए और बीमार मरीजों को बेलाडोना, रॉसटॉक्‍स व इयूपेटोरियम आदि दवाएं लक्षण के अनुसार दी जानी चाहिए। वरिष्‍ठ चिकित्‍सक डॉ. एसएन सिंह ने भी कहा कि सरकार को युद्ध स्‍तर पर ‘एंफ्लूएंजिनम-30’ दवा की खुराक देना बहुत जरूरी है। वरना देश को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

Wednesday, February 6, 2008

फिर बर्ड फ्लू का खौफ

-डा. ए. के. अरुण

सन्‌ 2004 में जब बर्ड फ्लू फैला था तब अपने देश में ज्यादा ही अफरा-तफरी थी। देश ही नहीं पूरे महाद्वीप सहित लगभग दुनिया भर में हाय-तौबा मच गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) ने ‘रेड अलर्ट’ जारी कर दिया था। इस रोग के आंतक की वजह से एशियाई देशों को 50 करोड़ डालर से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा था। इस बार भी धीरे-धीरे बर्ड फ्लू उसी अराजक स्थिति की तरफ बढ़ता प्रतीत हो रहा है।

इस बार भी बर्ड फ्लू के लिए वायरस एच 5 एन 1 को ही जिम्मेवार बताया जा रहा है। खबर है कि यह खतरनाक फ्लू वायरस बंगाल के अलावे बिहार, मेघालय, झारखण्ड, असम, त्रिपुरा, उड़िसा व अन्य प्रदेशों में भी पहुंच चुका है। हालांकि केन्द्र सरकार ने सभी प्रभावित क्षेत्रों में कोई 468 रैपिड रिस्पांस टीम भेज दी है जो ‘बर्ड फ्लू’ पर पैनी नजर रखे हुए है। आंकड़ों को देखें तो डब्लू.एच.ओ. के एपिडेमिक एण्ड पान्डेमिक एलर्ट एण्ड रिस्पान्स (ई.पी.आर.) के अनुसार 24 जनवरी 2008 तक भारत में बर्ड फ्लू से किसी व्यक्ति के मरने की खबर नहीं है जबकि इन्डोनेशिया में तीन संक्रमित व्यक्ति तथा वियतनाम मे एक कुल मिला कर चार के मरने की खबर है।

फ्लू वास्तव में एक तरह से श्वसन तंत्र का संक्रमण है। इस संक्रमण के लिए एन्फ्लूएन्जा वायरस का ए, बी तथा सी आदि टाइप जिम्मेवार होता है। इस संक्रमण में अचानक ठंड लगना, बदन दर्द, बुखार, मांशपेशियों में दर्द खांसी आदि लक्षण देखे जाते हैं। इसके कई प्रकार जैसे एच1 एन1, एच2 एन2, एच3 एन2 आदि कई बार दुनिया में तबाही मचा चुके हैं। इन वायरस के कहर से 1918-19 में लगभग 50 करोड़ लोग चपेट में आए थे जिन में से 2 करोड़ लोगों की तो मौत हो चुकी थी। इसमें कोई 60 लाख लोग तो भारत में मरे थे। उस समय इसे ‘स्वेन फ्लू’ का नाम दिया गया था। अब इस वायरस ने अपनी संरचना बदल ली है। वैज्ञानिकों की मानें तो इस नये फ्लू वायरस का प्ररिरोधी टीका बनाने में वक्त लगेगा। अब फ्लू वायरस ने अपनी संरचना बदल कर एच5, एन1 कर ली है। जाहिर है वायरस के तेजी से बदलने से इसके बचाव के उपायों को शीघ्र ढूढ़ना भी आसान नहीं है। ये वायरस महज महामारी ही नहीं वैश्विक महामारी फैलाने की क्षमता रखते हैं। ये वायरस बहुत कम समय में 3 कि.मी. से 400 कि.मी. तक की दूरी तक पहुंच जाते हैं। ये सूअर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, पालतु मुर्गे-मुर्गियों, पालतु पक्षियों आदि के माध्यम से संक्रमण फैला सकते हैं। एच तथा एन एन्टीजन के ये वायरस विशेष रूप से पालतु जानवरों को अपना वाहक बना लेते हैं। और फिर आदमियों में जाकर जानलेवा उत्पात मचाते हैं।

वि.स्वा.सं. हालाकि दावा कर रहा है कि इस ÷बर्ड फ्लू' के टीके देर-सवेर बना लिए जाएंगे लेकिन वैज्ञानिक और विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे तैयार करने में अभी वक्त लगेगा। वि.स्वा.सं. से जुड़े वैज्ञानिकों की मानें तो ‘बर्ड फ्लू’ के वायरस की सरंचना में तेजी से बदलाव के कारण इससे बचाव का टीका बनाने में दिक्कत आ रही है। यहां वैज्ञानिकों की यह भी आशंका है कि बर्ड फ्लू का वायरस सामान्य एन्फ्लूएन्जा से मिलकर कोई और नई जानलेवा बीमारी को भी जन्म दे सकता है। यह बीमारी इन्सान को हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। अभी तक यह रोग मुर्गियों से दूसरे पक्षियों में ही हो रहा है लेकिन इसके मुर्गियों से आदमी में संक्रमण की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता।

इधर एशियाई देशों में सार्स, बर्ड फ्लू, इबोला वायरस, एन्थे्रक्स आदि रहस्यमय व नये घातक रोगों का आतंक कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। ये रोग महज बीमारी फैलाकर लोगों को मारते ही नहीं बल्कि वहां की अर्थ व्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। सन्‌ 2003 में फैले ‘सार्स के आतंक’ ने एशियाई देशों के कोई 30 अरब डालर का नुकसान पहुंचाया था। सन्‌ 2004 में बर्ड फ्लू के आतंक ने थाइलैण्ड की अर्थ व्यवस्था को धूल चटा दिया था, जबकि उस वर्ष बर्ड फ्लू के 17 मामलों में वहां 12 मृत्यु दर्ज हुई थी। धीरे-धीरे भारत में भी मुर्गी पालन एक बड़े लघु उद्योग के रूप में उभर रहा है। ऐसे में बर्ड फ्लू का आतंक यहां कैसा कहर बरपा सकता है इसका अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद दुनिया में कुछ खास प्रकार की बीमारियों का जिक्र ज्यादा होने लगा है। भारत में अब कई ऐसे रोग अब मुख्य चर्चा में है लेकिन अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इसे बेहद खतरनाक बीमारी बताया गया है। यहां पहले से ही व्याप्त मलेरिया, कालाजार, टी.बी., डायरिया आदि के खतरनाक होते जाने की उतनी चर्चा नहीं होती जितनी इन अर्न्तराष्ट्रीय रोगों की हो रही है। एच.आई.वी./एड्स या हिपेटाइटिस-बी जैसे रोग ही देश के स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं। जबकि इन रोगों का स्थाई उपचार अभी तक ढूढ़ा नहीं जा सका है। वैश्वीकरण के दौर की महामारियों को देखें तो इन रोगों के लक्षण और उपचार यों तो अलग-अलग हैं लेकिन एक बात सब में समान है। वह है- इनका अर्न्तराष्ट्रीय खौफ और प्रचार। कोई 13 वर्ष पूर्व जब गुजरात के सूरत में अचानक प्लेग का आतंक फैला था तब ऐसी अफरा-तफरी मची थी कि भारत का ‘मैनचेस्टर’ कहा जाने वाला ‘सूरत’ बेरौनक हो गया था। कोई चार लाख लोग (लगभग दो तिहाई आबादी) कुछ ही दिनों में सूरत छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। करोड़ों को कारोबार चौपट हो गया था।

‘सार्स’ ने चीन की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया था। बर्ड फ्लू ने थाइलैण्ड को हिलाया। वियतनाम तो वैसे ही मृतप्राय है। इराक, अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया सब कुछ न कुछ ‘रहस्यमय’ व ‘घातक’ बीमारियों की चपेट में हैं। समझा जाना चाहिए कि जब देशों की अर्थव्यवस्था वैश्विक हो रही तो वैश्विक महामारियों से भला कैसे बचे रहा जा सकता है। इससे उलट भारत में मलेरिया टी.बी. कालाजार दिमागी बुखार आदि ऐसे रोग हैं जिन्हें वैश्वीकरण के दौर में ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही। जबकि इन रोगों से होने वाली इन्सानी मौतें लाखों में है। मलेलिया को ही ले तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 लाख बच्चे इसके चपेट में आते हैं। लेकिन एच.आई.वी. के दहशत ने वहां मलेरिया को नजर अन्दाज कर दिया है।

अब सवाल है कि इन अर्न्तराष्ट्रीय रोगों का उपचार क्या है? जाहिर है इन रहस्यमय रोगों के रहस्यमयी उपचार का ‘सीक्रेट’ दुनिया के चन्द शक्तिशाली दवा कम्पनियों के पास ही है और उनके पास इन दवाओं पर एकाधिकार भी है। इन कम्पनियों ने तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों के पेटेन्ट कानून को अपने फायदे के लिए बदलवा भी लिया है। पोलियों को ही देखें तो 10 हजार करोड़ों से भी ज्यादा रुपये खर्च कर हम पोलियों से भारत को मुक्त नहीं करा पाए हैं। बल्कि पोलियों की स्थिति और खतरनाक होती जा रही है। क्योंकि पोलियो के वायरस खतरनाक स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि पोलियो उन्मुलन का हम अर्न्तराष्ट्रीय फार्मूला ही प्रयोग कर रहे हैं। यह भी प्रश्न है कि इन ग्लोबल बीमारियों की सही दवा कैसे ढूढ़ी जाए? देश के कर्णधारों व योजनाकारों को यह समझना होगा। इन कथित रोगों की असली दवा तलाशनी होगी। अमीर देशों के हथकण्डे और ग्लोबल रोगों के आपसी रिश्ते को समझना होगा। जब तक रोग के सही कारण का पता नहीं लग जाता तब तक सही उपचार नहीं किया जा सकता। बर्ड फ्लू से डरने की बजाय उसका मुकाबला किया जाना चाहिए। यह जानलेवा रोग जरूर है लेकिन लाइलाज नहीं।
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त चिकित्सक एवं जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं।)

Monday, February 4, 2008

साक्षी स्‍कूल जा रहा है

...............-सरोज कुमार वर्मा

पीठ पर बस्‍ते का पहाड़
और वाटर-बॉटल में चुल्‍लू भर समंदर लिये
साक्षी स्‍कूल जा रहा है।

जूते काट रहे हैं पांव
गरदन कस रही है टाई
पीछे लदी किताब-कॉपियों के कारण
बैलेंस बनाये रखने की कोशिश में
आगे झुकी-झुकी दुख रही है कमर

मगर इन सब के बावजूद
साक्षी तेज-तेज कदमों से
स्‍कूल जा रहा है
कि देर हो जाने पर
क्‍लास से बाहर रहना पड़ेगा
या भरना पड़ेगा जुर्माना।

साक्षी ने आज होमवर्क नहीं किया
कल आई थी बुआ की बेटी झिलमिल
वह उसी के साथ खेलते-खेलते सो गया था
पर अभी स्‍कूल जाते
कांप रहा है उसका मन
कि इंग्लिश वाले सर
बड़ी बेरहमी से पीटते हैं।

साक्षी कभी-कभी स्‍कूल जाना नहीं चाहता
वह तितलियों के पीछे भागना चाहता है
उड़ाना चाहता है पतंग
खरगोश के बच्‍चे के साथ खेलना चाहता है
और चाहता है बाबा के पास गांव चला जाना

मगर उसे छुट्टि‍यां नहीं मिलती।
पापा कहते हैं – पढ़ो बेटा! खूब पढ़ो
तुम्‍हें कलक्‍टर बनना है
मम्‍मी कहती है – नहीं। डॉक्‍टर;
मगर साक्षी से कोई नहीं पूछता
वह क्‍या बनना चाहता है?
उसे पसंद है चित्र बनाना
गीत गाना और बजाना वायलिन।

लेकिन साक्षी क्‍या करे?
कहां फेंक आये पीठ पर लदा पहाड़?
कैसे खोले गरदन कसी टाई की गांठ?
आसमान में उड़ते पंछियों को देखकर
सड़क पर लगे माइल-स्‍टोन होने से
खुद को कैसे बचाये
सोचता हुआ साक्षी स्‍कूल जा रहा है।

Monday, January 28, 2008

मौसम के उतार-चढ़ाव से परिंदे भी हैरान

ठंड से लौटी कीठम पक्षी विहार में चहचहाहट
- सन्‍मय प्रकाश ......
मौसम के उतार चढ़ाव ने मनुष्‍यों ही नहीं, प्रवासी पक्षी को भी हैरान कर दिया है। उड़ान भर चुके चालीस हजार पक्षियों ने सफर स्‍थगित कर वापस आगरा के कीठम पक्षी विहार में डेरा डाल लिया। एक बार फिर एक लाख परिंदों की चहचहाहट से कीठम गूंज उठा है। दरअसल, दस दिन पहले हुई हल्‍की गर्मी ने प्रवासी पक्षियों को सर्दी का मौसम खत्‍म होने का आभास दिलाया था। इस दौरान उन्‍होंने जमकर भोजन किया और ऊर्जा बढ़ा ली। इसके बाद वे अपने-अपने वतन की ओर रवाना हो गये। तापमान गिरते ही परिंदों को मौसम की असलियत का अंदाजा हुआ और वापस कीठम लौट गये।
कीठम पक्षी विहार में आमतौर पर लद्दाख, चीन, बर्मा, साइबेरिया आदि ठंडे देशों से ही प्रवासी परिंदे आते हैं। उन देशों में इस वक्‍त बर्फ पड़ने लगती है। खाने की समस्‍या की वजह से पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा कर पक्षी विहार में डेरा डालते हैं। फरवरी की समाप्ति के साथ ही उनकी वापसी शुरू हो जाती है। लेकिन ग्‍लोबल वार्मिग ने मौसम के चक्र में जबरदस्‍त असर डाला है। इस बार सर्दी के मौसम में भी काफी दिनों तक गर्मी का अहसास हुआ। ऐसी स्थिति से परिंदे अछूते न रह सके। जिस प्रकार मनुष्‍यों ने दस दिन पहले गर्म कपड़ों की पैकिंग कर दी थी। लोगों ने सोचा कि सर्दी अब खत्‍म हो गई। प्रवासी पक्षियों ने भी ऐसा ही महसूस किया। उन्‍हें लगा कि आगरा में गर्मी शुरू होने का मतलब है कि उनके वतन में भी सर्दी में कमी आई है। वन विभाग के रेंज ऑफिसर आरबी उत्‍तम के अनुसार उड़ान भरने से पहले पक्षी अपनी ऊर्जा बढ़ाते हैं। पक्षी कुछ दिनों तक खूब भोजन करते हैं और अपना वजन बढ़ाते हैं। अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्‍न प्रजाति के पक्षी एक बार में सौ से हजार किलोमीटर की यात्रा करते हैं। चालीस हजार परिंदों ने उड़ान भरी और दो दिन बाद ही भीषण सर्दी शुरू हो गई। इसके बाद सभी ने यात्रा स्‍थगित कर दी। रास्‍ते में कहीं जल क्षेत्र न मिलने की वजह से कीठम में ही वापस आकर डेरा डालना पड़ा।
मौसम का जबरदस्‍त असर पक्षियों पर होता है। आधुनिकता में लोगों ने घरों के आस-पास के पक्षियों के आशियाने को खत्‍म कर दिया है। ताला या झरना नगन्‍य हो चुके हैं। इस वजह से पक्षियों को खाने-पीने की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो गई है। मैना, बुलबुल, गौरैया, रौबिन के समान प्रवासी पक्षियों को पक्षी विहार के अलावा कोई जगह रुकने का नहीं बचा। ऐसी स्थिति में परिंदों को सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर की यात्रा रोककर वापस लौटना पड़ा।

Tuesday, January 22, 2008

जाये तो कहां जाये कामगार जमात

-अनिल प्रकाश............
बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोगों के लिये प्रवासन का सिलसिला नया नहीं है। अंग्रेज यहां के लोगों को बहला-फुसलाकर गिरमिटिया मजदूर के रूप में मारिशस, फिजी, सूरीनाम ले गये थे, जहां कोड़े मार-मार कर उनसे गन्‍ने के खेतों में काम करवाया जाता था। समय का चक्र बदला, अंग्रेज वहां से चले गये और आज गिरमिटियों की संतानें खुशहाली में जी रही हैं। यहां के श्रमिकों को असम के चाय बगानों में भी ले जाया गया था। तब से वहां जाने का सिलसिला शुरू हुआ। ईंट के भट्ठों में, रिक्‍शे ठेले में जुते हुए, दुकानों में काम करने वाले, गाय-भैंस पालकर दूध बेचने वाले तथा भवन निर्माण और सड़क बनाने के काम में लगे लोग मुख्‍यत: इसी इलाके के हैं। यहां के लोग देश के उन इलाकों में भी अपना पसीना बहाते हैं, जहां रेलें नहीं जातीं। करगिर की बर्फीली पहाडि़यों पर, मणिपुर नागालैंड और सिक्किम की घाटियों और जंगलों में, पंजाब, हरियाणा, राजस्‍थान के खेतों में, केरल के नारियल-रबर के बगानों में, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, गुजरात के समुद्र तटों और अंडमान तक हाड़-तोड़ मेहतन करके वहां की समृद्धि बढ़ाने वाले बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोग हर जगह मिल जाते हैं। लेकिन आज उन्‍हें प्रताडि़त और अपमानित होना पड़ रहा है। असम के अलगाववादी सशस्‍त्र गुटों के हाथों ये सीधे-साधे लोग मारे जाते हैं। परिणामत: लगभग एक लाख लोग वहां से भाग कर वापस आ गये हैं। अभी अहमदनगर और नासिक में इन्‍हें पीटा गया। महानगर के सौंदर्यीकरण के नाम पर स्‍लम्‍स में बसे लोगों को बार-बार उजाड़ा जाता है।

यहां के पढ़े-लिखे युवा जब काम की तलाश में, नौकरी आदि के लिए अन्‍य राज्‍यों की ओर रुख करते हैं तो बहुधा उन्‍हें अपमानित होना पड़ता है। शिवसेना वालों ने कई बार बिहारी नौजवानों को पीटा। उड़ीसा में भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी हैं। दिल्‍ली की एक तिहाई से ज्‍यादा आबादी बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश से गये लोगों की है। लेकिन दिल्‍ली में बिहारी शब्‍द एक गाली है। मुम्‍बई में यहां के कामगारों के लिये हिकारत से ‘भैया’ शब्‍द का प्रयोग किया जाता है।

बाल ठाकरे और शिव सेना का नस्‍ली दृष्टिकोण तो जगजाहिर है लेकिन दिल्‍ली में अनिवार्य पहचान पत्र के बहाने यहां के लोगों को खदेड़ने की उच्‍चस्‍तरीय साजिश और उसके पूर्व शीला दीक्षित के अनर्गल बयान उनके संकीर्ण दृष्टिकोण को परिलक्षित करते हैं। दिल्‍ली अगर देश की राजनीतिक राजधानी और मुम्‍बई आर्थिक राजधनी है तो वहां जाने, काम करने और बसने का हक सभी देशवासियों को है। जब देश की आर्थिक नीति ऐसी है कि सारी प्रगति कुछ महानगरों और थोड़े से राज्‍यों तक सिमटी हो तथा ग्रामीण क्षेत्रों और अन्‍य इलाके कंगाली, भूख और गरीबी के अंधकार में डूबे हों तो लोग रोजी-रोटी की तलाश में समृद्ध इलाकों की तरफ जायेंगे ही। बिहारी श्रमिक अपनी कमाई से बचाकर जो पैसा अपने गांव भेजते रहे हैं उसके कारण बिहार के आर्थिक जीवन में, बाजार में चहल-पहल दिखती हैं। बाहर से आनेवाले इस पैसे ने बिहारी समाज के ढ़ांचे और सामाजिक संबंधों में बड़ा सकारात्‍मक बदलाव ला दिया था। प्रवासी श्रमिकों ने रेहन में रखी अपनी जमीन छुड़ाई, महाजन का कर्जा चुकाया और थोड़ी-थोड़ी जमीन भी खरीदी और मालिक के आसरे पर निर्भर उनकी इज्‍जत और उनका जीवन मुक्ति की ओर अग्रसर हुआ था। लेकिन 1990 के बाद से जैसे-जैसे उदारीकरण वाली नीतियां आगे बढ़ीं देश में हर जगह रोजगार के अवसर घटते गये। हरियाणा और पंजाब में काफी बड़े कृषि भू-भाग की मिट्टी में क्षारीयता बहुत हो गयी है। रासायनिक खादों, कीटनाशकों और सिंचाई के अत्‍यधिक प्रयोग के कारण न केवल भूजल स्‍तर तेजी से नीचे जा रहा है, बल्कि कृषि उपज भी घटने लगी है। वहां के खेतों में फसल कटाई-दौनी के लिए बड़े-बड़े हार्वेस्‍टर कम्‍ब्राइन आ गये हैं। इन कारणों से वहां के कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की जरूरत घट गयी है। देश के अन्‍य राज्‍यों में भी कृषि क्षेत्र की हालत खराब हो गयी है। सबसे उन्‍नत माने जाने वाले आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र और पंजाब में ही किसानों ने सर्वाधिक आत्‍महत्‍याएं की हैं और कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में तो 77 प्रतिशत ग्रामीण गरीब हैं (स्रोत-एनएसएसओ)। औद्योगिक क्षेत्रों में पार्ट पुर्जों के सस्‍ते आयात और अत्‍याधुनिक टेक्‍नालाजी के प्रवेश के कारण देशभर में लाखों छोटे-छोटे कारखाने और एंसिलियरी इकाइयां बंद हैं। ‘स्‍पेशल इकॉनोमिक जोन’ बनाये जाने के कारण भी लाखों किसान मजदूर उजड़ रहे हैं और बेरोजगारों की भीड़ में शामिल हाते जा रहे हैं। यह समझना भूल होगी कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आने से या इंफॉर्मेशन टेक्‍नालाजी के विकास से गरीबी दूर होती है। हां इससे देश के पांच प्रतिशत लोगों की समृद्धि अत्‍यधिक बढ़ी है। इसके अतिरिक्‍त भी 10-15 प्रतिशत लोगों को कुछ नये प्रकार के काम मिले हैं लेकिन शेष आबादी बहुत बुरी हालत में है। राष्‍ट्रीय असंगठित क्षेत्र आयोग की 1997 की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 83 करोड़ 60 लाख आबादी घोर गरीबी में रहती है। इनकी प्रतिदिन प्रतिव्‍यक्ति खपत 20 रुपये से भी कम है। लगभग 20 करोड़ लोग तो 10 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं। तबाह होते कृषि क्षेत्र में अभी भी 65 प्रतिशत लोग हैं। औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार नहीं बढ़ रहा है। सेवा क्षेत्र की तेज प्र‍गति के बावजूद उसमें रोजगार बहुत कम है। राष्‍ट्रीय आय वृद्धि भले ही 8-9 प्रतिशत हो जाये लेकिन विषमता बढ़ती गयी और लोगों की बेरोजगारी और गरीबी का सिलसिला जारी रहा। ऐसे में जब बेरोजगारों और गरीबी का सिलसिला जारी रहा। ऐसे में जब बेरोजगार युवा या श्रमिक समृद्ध शहरों में पहुंचते हैं तो स्‍थानीय लोगों को लगता है कि वे उनका हक मारने आये हैं। इन परिस्थितियों में ही शिवसेना जैसे संगठनों को स्‍थानीय लोगों में आंचलिक असहिष्‍णुता भड़काने का मौका मिल जाता है। बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश में दुनिया की सबसे उर्वर भूमि है, विस्‍तृत बाजार और पूंजी भी मौजूद है, लेकिन गलत आर्थिक नीतियों और निकम्‍मेपन के कारण यहां का स्‍वाभाविक विकास बाधित है।

बैंकों में जमा अधिकांश पैसा बाहर चला जाता है। यहां के किसान और स्‍थानीय कारोबारियों को पांच प्रतिशत सैकड़ा/महीना सूद पर महाजनों से पूंजी लेनी पड़ती है। यही कारण है कि फलों, सब्जियों के भरपूर उत्‍पादन के बावजूद छोटे-छोटे उद्योगों का जाल नहीं फैल सका। हाईटेक उद्योग लगाने के लिए एनआरआई या बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आने से रोजगार का सृजन नहीं होगा। वे आ भी नहीं रही हैं। अकेले गुड़-खांडसारी का उद्योग लाखों हाथों को रोजगार दे सकता है।

लेकिन इसको प्रोत्‍साहन तो दूर पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। छोटे, कुटीर-लघु उद्योगों और कृषि के विकास से यहां के करोड़ों लोगों को सम्‍मानपूर्वक रोजगार मिल सकता है और उन्‍हें बार-बार की जिल्‍लत से बचाया जा सकता है।
(दैनिक जागरण के मुजफ्फरपुर संस्‍करण से साभार।)

Friday, January 11, 2008

प्रदूषण की देन तिलपिया निगल गई यमुना की मछली

मथुरा से इटावा तक अब मांसाहारी तिलपिया का साम्राज्‍

-सन्‍मय प्रकाश .....
प्रदूषण की देन तिलपिया ने यमुना में अन्‍य प्रजाति की मछलियों पर कहर बरपा दिया है। शरीर पर कांटे वाली इस मछली के कारण देसी मछलियों का अस्त्वि खतरे में पड़ गया है। यमुना से मछलियों की 10 से अधिक प्रजातियां लुप्‍त हो चुकी हैं। जबरदस्‍त प्रदूषित जल में रहने वाली तिलपिया से कई खतरे को देखते हुये केन्‍द्र सरकार ने इसके पालन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। यमुना और इससे निकलने वाली नहरों में केवल इसी का साम्राज्‍य है। सामान्‍य मछलियों प्रदूषण से तो खत्म हो रही है, दूसरी ओर दुश्‍मन तिलपिया उसकी जान ले रही है। मछली को पसंद न किये जाने से मछुआरे इसे पकड़ते भी नहीं हैं।
मथुरा, आगरा और फिरोजाबाद से गुजर रही यमुना में केवल तिलपिया मछली ही देखने मिल रही हैं। अफ्रीका और पूर्व मध्‍य एशियाई देशों में पाई जाने वाली यह मछली अति प्रदूषित जल में भी जीवित रह सकती है। देसी मछलियां वर्ष में एक बार प्रजनन करती है, जबकि तिलपिया दो बार। दोगुनी गति से इसकी वृद्धि होती है। भारत में प्रतिबंध के बावजूद यमुना में इसके फैलने का कारण उत्‍तर प्रदेश का मत्‍स्‍य विभाग को समझ नहीं आ रहा है। माना जा रहा है कि किसी ने तालाब में इसे पाल हो और बरसात में वहां से बहकर यह नदी में आ गई। जबरदस्‍त प्रदूषण और तिलपिया के आक्रामक रुख से आगरा और इसके आस-पास के इलाकों से गुजर रही यमुना से रेहू, नैन, कतला, सिल्‍वर कार्प, ग्रास काल्‍प, चाइनीज कार्प, टैंगन, सुइया, लाची, सॉल, चिलवा और टेंगडि़या समेत कई प्रजाति की मछलियां लगभग विलुप्‍त हो चुकी हैं। मत्‍स्‍य विभाग के आगरा के निरीक्षक रघुवीर कुमार का कहना है कि तिलपिया के खाने से पेट के अल्‍सर का खतरा रहता है। स्‍वास्‍थ्‍य और काफी तेजी से प्रसार होने की वजह से ही केन्‍द्र सरकार ने इस मछली पर प्रतिबंध लगा दिया था।
मछुआरा चंदन और बंटू ने बताया कि उसके खाने के लिये मछली का संकट हो गया है। जाल फेंकने पर केवल तिलपिया ही पकड़ में आती है। इसे सावधानी से न पकड़ने पर कांटे से उंगलियां फट जाती हैं। इसका स्‍वाद भी अच्‍छा नहीं है। नदी से मछली को निकालने के बाद तीन-चार घंटे में ही गंद और सड़न शुरू हो जाती है। बाजार में तिलपिया पांच से दस रुपये किलोग्राम की दर से कोई खरीदने को तैयार नहीं होता है। जबकि देसी मछलियों की कीमत 45 से 70 रुपये तक है। प्रशासन से ठेका मिलने के बाद ठेकेदार भी परेशान हैं। पर्यावरण की दृष्टि से सबसे चिंताजनक बात है कि अगर इस मामले पर कोई कदम न उठाया गया तो मछली यमुना के माध्‍यम से इटावा पहुंचकर चंबल में फैल जायेगी। इसके बाद इलाहाबाद के संगम के माध्‍यम से गंगा तक चली जायेगी। गौरतलब है कि वर्ष 2007 में चार बार मछलियां प्रदूषण की वजह से मर चुकी है। लेकिन तिलपिया मछलियों की मौत ज्‍यादा संख्‍या में नहीं हुई। हां, देसी मछलियां जरूर खत्‍म हो गई।
(हिन्‍दुस्‍तान के आगरा संस्‍करण से साभार)