Tuesday, March 18, 2008

कहां खो गई है आगरा शहर की संवेदना

-प्रेम पुनेठा . .
‘दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है?’ यह शेर आगरा के राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों पर सटीक उतरता है। शहर भले ही वाहनों की तेज रफ्तार देख रहा हो, लेकिन यहां के लोगों में रवानगी जैसे थम गई है। नहीं तो पूरी बस्‍ती जिंदगी की जंग लड़ रही होती और कहीं कोई हलचल तक नहीं होती।

खत्‍ताघर (कूड़ाघर) की गंदगी पिछले दो महीने में नगला रामबल में एक दर्जन से ज्‍यादा लील गई, लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों और शहरवासियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगा। जब एक ही रात में दो बच्‍चों सहित तीन लोगों की मौत हो गई और कई कई अन्‍य मरणासन्‍न हो गए तब मोहल्‍लावासियों का आक्रोश फूटा और प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद शुरू हो गए विभागों के दौरे। राजनेताओं का आगमन सबसे बाद में हुआ और वे सिर्फ बयान देने तक सीमित रह गए। यह पूरी घटना नगर विकास मंत्री नकुल दूबे के आगरा आने के दूसरे दिन होती है।

कहने को यहां एक नगर निगम है, जिस पर शहर की सफाई व्‍यवस्‍था को दुरुस्‍त रखने की जिम्‍मेदारी है। जनता से टैक्‍स वसूल कर वेतन पाने वालों की वहां एक लंबी फौज है, लेकिन काम नहीं होता तो दिखाई नहीं देता। नगर निगम में एक महापौर भी हैं, जो ताजमहल के विश्‍व के सात अजूबों में शुमार होने पर अपनी पीठ थपथपा लेती हैं, पर उसी ताज के पिछवाड़े बजबजाती गंदगी से लगातार होती मौतें उन्‍हें बेचैन नहीं करतीं। सुना है कि पर्यटन बढ़ाने के लिए वे विदेश यात्रा भी करने वाली हैं पर शहर में घूमने का उन्‍हें समय नहीं। एक सांसद (राज बब्‍बर) भी हैं जो बॉलीवुड के ग्‍लैमर की दुनिया में ही रहते हैं, जनाब जनता की भी कुछ समस्‍याएं हैं आप कब इनसे रूबरू होंगे।

यहां राजनीतिक पार्टियां भी हैं। मुंबई में उत्‍तर भारतीयों पर हमलों के विरोध में सड़कों पर आने वाली सपा को इन मौतों से कोई लेना देना नहीं तो दलितों के नाम पर काबिज बसपा चिंतामुक्‍त है।
आखिर ये जाएंगे कहां। भाजपा के पास राम के नाम पर मर-मिटने वाले जियाले तो हैं लेकिन इंसानों की मौत उन्‍हें विचलित नहीं करती। सर्वहारा के हितैषी कम्‍युनिस्‍ट भी हैं लेकिन अब गरीबों के पक्ष में उनके मोर्चे नहीं लगते। सामाजिक संगठन हैं, लेकिन उनका सारा समाज सिर्फ उनकी जाति है। शहर की फिज़ा में अजीब भी मुर्दानगी क्‍यों छाई हुई है

3 comments:

Anonymous said...

'पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है?'-सुधार लें।

Unknown said...

शुक्रिया, अफ़लातून जी।

Anonymous said...

तो मित्र आप भी
आगरा से हैं
तभी पोस्‍टों से
आग लगा रहे हैं.

नुक्‍कड़ पर आप हैं
नुक्‍कड़ पर हम हैं
पर पान की दुकान
किसी की नहीं है.

मैं पान नहीं खाता
क्‍या आप खाते हैं
लेखा वाला खाता
खाता वाला खाता
खिलाने वाला खाता
सच तो है मित्र
सिर्फ पचाने वाला खाता.