Tuesday, March 18, 2008

बेतरतीब शहरीकरण का खामियाजा भुगतता आगरा का एक हिस्सा

-सन्‍मय प्रकाश . . . .
आगरा के बेतरतीब शहरीकरण का खामियाजा यहां का एक हिस्सा झेल रहा है। शहर का सारा कचरा ताजमहल से करीब पांच किलोमीटर दूर नगला रामबल के पास डाला जाता है। करीब एक किलोमीटर के व्‍यास में फैला यह खत्‍ताघर (कूड़ाघर) ताजमहल से भी ऊंचा हो गया है। खत्‍ताघर की गंदगी, दुर्गंध और कूड़े के जलने से निकली जहरीली गैसों ने पिछले छह महीने में 13 लोगों की जान ले ली है। सात सौ की यह आबादी जिंदगी और मौत से लड़ रही है। 11 मार्च से अब तक तीन बच्‍चे और दो वृद्ध मौत के मुंह में समा चुके हैं। यहां लोगों को अचानक दस्‍त, उल्‍टी और बुखार की शिकायत हुई और उसके आधे से दस घंटे के भीतर उन्‍होंने दम तोड़ दिया। आगरा मेडिकल कॉलेज की 17 मार्च की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 138 घरों के 112 लोग गंभीर रूप से बीमार हैं।

शहर की गंदगी की बोझ उठा रहे कूड़ाघर ने नगला रामबल को महामारी की सौगात दी है। यह चेतावनी है कि बिना किसी प्‍लानिंग के शहरीकरण की अंधी दौड़ हमें किस मुकाम पर ले जायेगी। 11 मार्च को एक ही दिन दो सगे भाइयों और एक वृद्ध की मौत के बाद प्रशासन ने बैठक की, लेकिन अधिकारियों ने अगले छह महीने के लिये इसी क्षेत्र में शहर का कचरा डालने का फरमान सुना दिया। शायद उन्‍हें इसकी चिंता नहीं है कि उनके फैसले से कई और लोगों की मौत हो सकती है। इसके बाद दो और मौतें हो गईं। कूड़ाघर ने भूमिगत जल भी पीने लायक नहीं छोड़ा है।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने वर्ष 2003 में कूड़ाघर को शहर से दूर स्‍थानांतरित करने का आदेश दिया था। यह उसी फैसले का हिस्‍सा था, जिसमें प्रदूषण से ताजमहल को बचाने के मामले की सुनवाई हुई थी, लेकिन आज तक नया लैंड फिल साइट (कूड़ाघर) नहीं तैयार किया गया। नगर निगम के ट्रक कभी यमुना में शहर की गंदगी डालते हैं तो कभी नगला रामबल के पास के इलाके में। 14 दिसम्‍बर को उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बीमारियों के खतरों की संभावना जताते हुये कूड़ाघर स्‍थानांतरित करने का नोटिस नगर निगम और आगरा प्रशासन को भेजा, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया और इसका हश्र नगला रामबल में मौत दर मौत बनकर सामने आया है। इतना सब कुछ होने के बावजूद सरकार और प्रशासन का इस दिशा में कोई प्रयास दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल, इस रवैये का आंतरिक कारण सामंतवादी मनोवृत्ति भी है। क्षेत्र में ज्यादातर आबादी दलित है, जो रोज मजदूरी करके पेट पालती है। इनके पास दवा के लिये भी रुपये नहीं हैं। अगर यहां शहर का संभ्रांत परिवार निवास करता तो कूड़घर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ ही हट चुका होता और महामारी न फैलती। मौत की खबरें अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करणों में काफी छप रही हैं, लेकिन ताज्‍जुब की बात है कि ताजमहल के शहर में इस घटना को लेकर चर्चा तक नहीं हो रही। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया भी इसे तरजीह नहीं दे रहा है।

कूड़े के निपटारे की समस्‍या हर जगह है। कुछ शहरों में इससे खाद, पेट्रोल और बिजली बनाकर लाभ कमाया जा रहा है। नागपुर में कचरे के प्‍लास्टिक से पेट्रोल बनाने की बात हाल ही में सामने आयी है। शिमला नगर निगम ने कचरे से बिजली बनाने का ठेका जयपुर की सीडीसी कंपनी को सौंपा है। अगर कुछ ऐसी ही सोंच के साथ आगरा में भी कचरे का समाधान कर लिया जाये तो नगला रामबल जैसे क्षेत्र बर्बाद नहीं होंगे और न ही लोगों को जिंदगी गंवानी पड़ेगी।

कहां खो गई है आगरा शहर की संवेदना

-प्रेम पुनेठा . .
‘दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है?’ यह शेर आगरा के राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों पर सटीक उतरता है। शहर भले ही वाहनों की तेज रफ्तार देख रहा हो, लेकिन यहां के लोगों में रवानगी जैसे थम गई है। नहीं तो पूरी बस्‍ती जिंदगी की जंग लड़ रही होती और कहीं कोई हलचल तक नहीं होती।

खत्‍ताघर (कूड़ाघर) की गंदगी पिछले दो महीने में नगला रामबल में एक दर्जन से ज्‍यादा लील गई, लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों और शहरवासियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगा। जब एक ही रात में दो बच्‍चों सहित तीन लोगों की मौत हो गई और कई कई अन्‍य मरणासन्‍न हो गए तब मोहल्‍लावासियों का आक्रोश फूटा और प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद शुरू हो गए विभागों के दौरे। राजनेताओं का आगमन सबसे बाद में हुआ और वे सिर्फ बयान देने तक सीमित रह गए। यह पूरी घटना नगर विकास मंत्री नकुल दूबे के आगरा आने के दूसरे दिन होती है।

कहने को यहां एक नगर निगम है, जिस पर शहर की सफाई व्‍यवस्‍था को दुरुस्‍त रखने की जिम्‍मेदारी है। जनता से टैक्‍स वसूल कर वेतन पाने वालों की वहां एक लंबी फौज है, लेकिन काम नहीं होता तो दिखाई नहीं देता। नगर निगम में एक महापौर भी हैं, जो ताजमहल के विश्‍व के सात अजूबों में शुमार होने पर अपनी पीठ थपथपा लेती हैं, पर उसी ताज के पिछवाड़े बजबजाती गंदगी से लगातार होती मौतें उन्‍हें बेचैन नहीं करतीं। सुना है कि पर्यटन बढ़ाने के लिए वे विदेश यात्रा भी करने वाली हैं पर शहर में घूमने का उन्‍हें समय नहीं। एक सांसद (राज बब्‍बर) भी हैं जो बॉलीवुड के ग्‍लैमर की दुनिया में ही रहते हैं, जनाब जनता की भी कुछ समस्‍याएं हैं आप कब इनसे रूबरू होंगे।

यहां राजनीतिक पार्टियां भी हैं। मुंबई में उत्‍तर भारतीयों पर हमलों के विरोध में सड़कों पर आने वाली सपा को इन मौतों से कोई लेना देना नहीं तो दलितों के नाम पर काबिज बसपा चिंतामुक्‍त है।
आखिर ये जाएंगे कहां। भाजपा के पास राम के नाम पर मर-मिटने वाले जियाले तो हैं लेकिन इंसानों की मौत उन्‍हें विचलित नहीं करती। सर्वहारा के हितैषी कम्‍युनिस्‍ट भी हैं लेकिन अब गरीबों के पक्ष में उनके मोर्चे नहीं लगते। सामाजिक संगठन हैं, लेकिन उनका सारा समाज सिर्फ उनकी जाति है। शहर की फिज़ा में अजीब भी मुर्दानगी क्‍यों छाई हुई है