Sunday, December 9, 2007

नमक में ऑयोडीन से बिगड़ रही है सेहत

-सन्‍मय प्रकाश -
आम जनता की सेहत और गाढ़ी कमाई को सरकार ने आयोडीन नमक के नाम पर कंपनियों के सामने न्‍योछावर कर दिया है। नमक के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां जनता को धोखा दे रही हैं। संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय स्वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने पहली बार माना है कि फल, सब्‍जी, दूध, दही, मांस, मछली और पानी में आयोडीन की भरपूर मात्रा है। चिकित्‍सकों का कहना है कि इसके बाद भी नमक में जबरदस्ती आयोडीन खिलाने से हाइपो थाइरायड सहित कई बीमारियां हो रही हैं। लोगों को आयोडीन युक्त नमक नहीं खाना चाहिए।

आयोडीन की अधिकता से बीमारी होने के मामले को सांसद अली अनवर ने राज्‍सभा में सवाल उठाया था। पिछले सप्ताह केंद्रीय स्वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्याण रार्‍यमंत्री पी लक्ष्मी ने जवाब देते हुए कहा है कि आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज में हुए शोध में साबित हुआ है कि खाने की वस्तुओं में आयोडीन पर्याप्त मात्रा में है। आगरा में हाइपो थाइरायड के मरीजों की संत्रया बहुत र्‍यादा है। औसतन प्रत्‍येक घर के एक सदस्य को हाइपो थाइरायड की बीमारी है।

आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभागाध्‍यक्ष डॉ. एके गुप्ता का कहना है कि रिसर्च का दूसरा फेज अब शुरू होगा। अब तक के शोध से पता चला है कि जिन घरों में आयोडीन का प्रयोग होता है, वहां भी घेघा की बीमारी है। उनका कहना है कि आयोडीन के ज्‍यादा सेवन से शरीर में ट्राईआयडोथाइरोनीन, थायरॉक्चसीन हार्मोन बनना कम हो जाता है। जो बीमारी आयोडीन की कमी से होती है वही बीमारी इसकी अधिकता से हो जाती है। वे मरीजों को साधारण नमक या सेंधा नमक खाने की सलाह देते हैं। आगरा का लायर्स कालोनी, शास्‍त्रीपूरम के डावली कालोनी और किरावली के कुछ गांव उदाहरण हैं, आयोडीन की अधिकता से हो रही बीमारियों के। इन कालोनियों में सौ से अधिक परिवार हैं जिनके घर के सभी सदस्यों को थायरॉयड है।

दरअसल, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार के कारण ही हर आम आदमी को आयोडीन नमक खिलाने का अभियान सरकार ने चला रखा है। एक रुपये का नमक दस रुपये में बेचा जा रहा है। केवल पहाड़ी इलाकों में खाद्य पदार्थ में आयोडीन की कमी पाई गई है। आयोडीन नमक केवल इन्‍हीं जगहों के लोगों को खिलाना चाहिए।

संसद में सरकार एक तरफ कहती है कि आयोडीन खाद्य पदार्थ में पूरी मात्रा में मिल रही है, लेकिन दूसरी ओर साधारण नमक पर प्रतिबंध भी लगा रखा है। डॉक्चटरों का कहना है कि नियम का अर्थ यह है कि लोगों को बिना आयोडीन वाला नमक कभी नहीं मिलेगा। आयोडीन की अधिकता से तमाम बीमारियों झेलनी ही होगी। इन बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है सेंधा नमक का प्रयोग।

रासायनशास्‍त्र के प्रोफेसर डॉ.अशोक कुमार का कहना है कि साधारण नमक से आयोडाइर्‍ड नमक बनाने के दौरान रासायनिक प्रक्रिया से गुजारा जाता है। इस दौरान आयरन, कैल्शियम, जिंक आदि बाहर निकाल जाता है। इसके ऊपर पोटाशियम आयोडाइड नामक रसायन डाला जाता है। इसका बड़ा नुकसान है ऑक्सीडाइजिंग एजेंट। इसकी वजह से शरीर में कुछ हार्मोन और एंजाइम आदि भी ऑक्सीडाइजिंग करने की प्रवृत्ति रखते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आयोडीन कितनी मात्रा में मिला है। भूजल में आयोडीन पूरी मात्रा में देश के मैदानी इलाकों में है।

Thursday, December 6, 2007

मथुरा रिफाइनरी का सीवेज यमुना में डालने पर लगा प्रतिबंध

उत्‍तर प्रदेश सरकार ने मथुरा रिफाइनरी का सीवेज यमुना में डालने पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब इसके पानी का सम्‍पूर्ण उपयोग सिंचाई और भूजल रिचार्ज करने में किया जायेगा। प्रमुख सचिव, नगर विकास डीसी लाखा ने मथुरा में आलाधिकारियों की बैठक में यह फैसला सुनाया है। रिफाइनरी को इसके लिये विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) बनाने का निर्देश दिया गया है। ताकि पानी का अन्‍य उपयोग हो सके। इस निर्णय से पर्यावरण प्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई है।

गौरतलब है कि पिछले महीने मछलियों के मरने की घटना के बाद केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी), उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) और जल संस्थान की टीम ने रिफाइनरी की ड्रेन, बरारी में तैलीय पदार्थ की पड़त देखी थी। पहले से ही प्रदूषण की मार झेल रही यमुना को दोहरी मार झेलनी पड़ रही थी। तेल की पड़त की वजह से पानी में ऑक्‍सीजन बनने की प्रक्रिया में रुकावट आ जाती थी। इसकी वजह से नवम्‍बर महीने में कम से कम पांच बार हजारों की संख्‍या में मछलियां मर गई। रिपोर्ट का कहना था कि यमुना में इस तरह का ड्रेन जाना खतरे से खाली नहीं है। इसके बाद प्रमुख सचिव डीसी लाखा ने निर्देश दिया कि रिफाइनरी का सारा पानी (सीवेज) सिंचाई और अंडरग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिये इस्तेमाल किया जाय। लेकिन इससे पहले लगातार कई दिनों तक रिफाइनरी से निकल रहे पानी की गहनता से जांच की जाय। अगर भूजल के रिचार्ज के लिये भी यह खतरनाक है तो किसी दूसरे तरीके से सीवेज का इस्तेमाल किया जाय। यह भी कहा गया है कि अगर पानी की गुणवत्‍ता ठीक नहीं है तो इसे जानवरों के पीने के लिये भी इस्तेमाल में न लाया जाय।

Tuesday, December 4, 2007

खतरे से खाली नहीं है ब्‍लड बैंक का रक्‍त चढ़वाना

बीमारी के दौरान जो रक्‍त आपको चढ़ाया जा रहा है, वह एड्स और हेपेटाइटिस बी तथा सी का कारण बन सकता है। यह जरूरी नहीं है कि ब्‍लड बैंक से मिल रहे रक्‍त में इन दोनों बीमारियों का वायरस बिल्ङुल ही न हों। आपके अपनों का खून भी आपके जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है। विशेषड्टाों के अनुसार एचआईवी इंफेक्‍शन के छह महीने से छह साल तक जांच में वायरस का पता नहीं लगाया जा सकता है। ब्‍लड बैंक में रक्‍तदान करने वाले 50 प्रतिशत से अधिक नशेड़ी होते हैं। वे रुपये के लिये रक्‍तदान करते हैं। केवल पीसीआर जांच में ही वायरस की संख्‍या की जानकारी मिल सकती है। लेकिन यह जांच 99 फीसदी ब्‍लड बैंक में नहीं है।

साइंटिफिक पैथोलॉजी केन्‍द्र के डॉ. अशोक शर्मा का कहना है कि एचआईवी की जांच के अब कई तरीके आ चुके हैं। इसकी सेंसटिविटी र्‍यादा है, लेकिन एक हद तक ही। उनका कहना है कि इंफेक्‍शन के बाद शुरुआती स्तर पर एचआईवी की जांच में वायरस नजर नहीं आ सकता। लेकिन, गौर करने वाली बात यह है कि ब्‍लड में वायरस कितनी संख्‍या में हैं। शुरुआती स्टेज के मरीज का रक्‍त चढ़ाने के काफी समय के बाद मरीज में एड्स के लक्षण दिखेंगे। यही हाल मलेरिया पैरासाइट बीमारी का भी है। इसके भी वायरस रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने पर ही असर दिखाते हैं।

एसएन मेडिकल कॉलेज में भी इस मसले पर चिंता बढ़ गई है। एसएन मेडिकल ङङ्खॉलेज के प्राचार्य डॉ.एनसी प्रजापति का कहना है कि आम तौर पर एचआईवी पॉजिटिव होने की 83 प्रतिशत जानकारी किसी अन्‍य बीमारी के दौरान ही पकड़ में आती है। रक्‍त चढ़ाने से पहले पैकेट पर एचआईवी और हेपेटाइटिस बी व सी निगेटिव लिखा हुआ होना जरूर देख लेना चाहिए। इस वक्‍त एकमात्र यही विकल्प है। मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के डॉ. बलबीर सिंह का कहना है कि एचआईवी वायरस के संङ्रमण के छह महीने से छह साल तक आदमी बिलङुल सामान्‍य स्थिति में रहता है। ऐसी स्थिति चालीस से पचास प्रतिशत लोगों में देखने को मिली है। मात्र पंद्रह प्रतिशत लोगों रोग प्रतिरोधक क्षमता में भारी कमी संक्रमण के एक साल बाद ही दिखने लगता है। यह संबंधित त्‍यक्ति में पहले की रोग प्रतिरोधक क्षमता, खान-पान और जीवन स्तर पर निर्भर करता है।
हेपेटाइटिस बी और सी उतनी ही खतरनाक है जितना एड्स। कई बार इंफेक्‍शन होने के बाद पीलिया, पेट में दर्द जी मचलाना लक्षण होते हैं और हल्‍के इलाज के बाद मरीज ठीक हो जाता है। इस दौरान कई बार पता नहीं चलता है कि हेपेटाइटिस बी या सी का वायरस शरीर में मौजूद है। लेकिन सात-आठ वर्षों बाद फिर पीलिया शुरू हो जाता है और पेट में पानी भर जाता है। ऐसी स्थिति में उसे बचाना खतरनाक होता है। यही स्थिति कुछ अन्‍य बीमारियों में भी होती है। एचआईवी का पता लगाने के लिये सीडी फोर और पीसीआर की जांच में कम से कम चार हजार रुपये का खर्चा आता है। यदि इन बीमारियों के प्रारंभिक लक्षण वाले मरीजों का खून किसी को चढ़ा दिया जाए तो उसे भी यह बीमारी होनी ही है।