Monday, September 17, 2007

अंतिम इच्‍छा

- ओपी सरीन, आगरा।

अंतिम इच्‍छा
जब कोई नहीं रह जाएगा
साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरयों, गिलहरियों से
बिछुड़कर जाएगा
एक वृक्ष।
अग्नि प्रवेश करेगा वही
मुझसे पहले,
कितनी लकड़ी लगेगी
श्‍मशान की टाल वाला पूछेगा।
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूं अंतिम इच्‍छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो
मेरा संस्‍कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे
संसार में।

2 comments:

अनिल रघुराज said...

कहने के लिए नहीं कह रहा। वाकई शानदाक कविता है। अद्भुत पंक्तियां हैं -
जब कोई नहीं रह जाएगा
साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरैयों, गिलहरियों से
बिछुड़कर जाएगा एक वृक्ष।

Anita kumar said...

बहुत अच्छा लगा आप की ये कविता पढ़ कर। मेरे भी कुछ् ऐसे ही विचार हैं , मै आप के ब्लोग पर आज पहली बार आयी हूँ , अपने जैसे विचार देख अच्छा लगा, कभी वक्त मिले और मन हो तो हमारी कविता 'खुली वसियत' पढ़ कर देखें कितनी समानता है। अभिनन्दन