-प्रेम पुनेठा
शहीदे आजम के जन्म दिवस पर विशेष।
भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का ही प्रभाव था कि आगरा के एक छोटे से गांव का हेमचंद्र भूमिगत आंदोलन का सदस्य बन गया। उसने सारी जिंदगी के लिए अपना मूल नाम भी छोड़ दिया और सारी जिंदगी देश को समर्पित कर दी। भगत सिंह के बताए रास्ते और समाजवादी विचारों के लिए उसने कालापानी की सजा भी सहर्ष स्वीकार किया। अाज सब लोग उन्हें ठाकुर राम सिंह के नाम से जानते हैं।
राम सिंह बताते हैं कि जब उन्होंने 1930 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की सदस्यता ग्रहण की थी। तब तक संसद में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह अपने साथियों के साथ गिरफ्तार हो चुके थे, लेकिन अदालत में दिए उनके बयान और गुप्त तौर से आए संदेशों को वे पार्टी सदस्यों के साथ जनता के बीच ले जाने का काम पर्चे, पोस्टर के माध्यम से करते थे। राम सिंह का कहना है कि उन दिनों वे अजमेर की इकाई में काम करते थे और गुप्त तौर से जनता के बीच पर्चे और पुस्तकें छपवा कर जनता के बीच बांटा करते थे। इन पर्चो के माध्यम से समाजवादी विचार और रिपब्लिकन आर्मी के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करते थे।
उन्होंने बताया कि 1930 में भगत सिंह को जेल से छुड़ानें की योजना भी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने बनाई थी। इसलिए रणनीति तय करने और हथियार इकट्ठा करने के लिए लाहौर को केन्द्र बनाया गया था। इस काम के लिए अजमेर की उनकी इकाई से मदन गोपाल यादव के नेतृत्व में तीन सदस्य भी गए थे। लाहौर में जिस मकान में संगठन काम कर रहा था वहां सदस्यों की लापरवाही से बम विस्फोट हो गया। इससे पूरा मकान ही ध्वस्त हो गया। सभी साथियों को तत्काल लाहौर छोड़कर भागना पड़ा और भगत सिंह को छुड़ाने की योजना को त्यागना पड़ा।राम सिंह ने बताया कि भगत सिंह की शहादत के कुछ समय बाद ही चंद्र शेखर आजाद भी शहीद हो गए थे। यह संगठन के लिए बड़ा झटका था। इसके बाद भी दिल्ली स्थित केन्द्रीय कमेटी के नेतृत्व में इकाइयां क्रांतिकारी गतिविधियां संचालित करती रहीं। इन गतिविधियों का आधार भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के विचार ही होते थे। आजादी विरोधी पुलिस अफसरों को मारना तब भी जारी था। भगत सिंह की रणनीति की तरह ही 1935 में एक पुलिस अफसर की हत्या कर दी गई थी। यह पुलिस अफसर मेयो कॉलेज में मिले रिवाल्वर और नीमच से डायनामाइट चोरी की जांच करने के लिए अजमेर आया था लेकिन इन जांचों की आड़ में वह मध्य भारत की राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण लगाना चाहता था। उसके नापाक इरादों को भांपते हुए राम सिंह ने अफसर को गोली मार दी। इस मामले में उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई।
आज भी राम सिंह शहद भगत सिंह स्मारक समिति के अध्यक्ष हैं और उनके विचारों के प्रति समर्पित हैं। उनका मानना है कि जिन लक्ष्यों और विचारों को उन्होंने क्रांतिकारियों से ग्रहण किया, न तो आजादी उसके अनुरूप मिली और न देश के नेताओं ने जनता को मुक्ति दिलाने का प्रयास किया। राम सिंह का मानना है कि आज देश नेतृत्वविहीन हो गया है। धीरे-धीरे अमेरिकी साम्राज्यवाद हमें निगलता जा रहा है। देश के लिए यह एक बड़ी कठिन स्थिति है।
Thursday, September 27, 2007
Wednesday, September 26, 2007
मुलायम सिंह के गांव में सबसे ज्ञानी युवा?
सरकार बदलने के बाद उत्तर प्रदेश में सिपाहियों की भर्ती में सबसे बड़ा घोटाला सामने आया है। लेकिन गड़बड़ी का सिलसिला इतना ही नहीं है। एक अन्य घोटाले की जांच कर रहे दल को पता चला है कि यूपी के होनहार और ज्ञानी पुरुष पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के गांव सैफई में बसते हैं। पिछले साल आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज में हुई नियुक्ति का 15 फीसदी हिस्से को इस छोटे गांव ने पूरा किया है। जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 3 हजार 817 है। इसे पूर्व मुख्यमंत्री के गांव का असर कहें या कलाबाजी, लेकिन सरकारी दस्तावेज यही बता रहे हैं। कॉलेज में 368 कर्मचारियों की नियुक्ति हुई और 50 से अधिक कर्मचारी सैफई के ही हैं। मायावती सरकार द्वारा गठित जांच दज के सामने अब नियुक्ति घोटले के राज खुल रहे हैं।
आगरा के मेडिकल कॉलेज में नियुक्तियों का दौर एक वर्ष से अधिक समय तक चला। सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मिली जानकारी के अनुसार साढ़े तीन सौ कर्मचारियों की भर्ती के लिए हजारों युवकों ने आवेदन दिया था। दिसम्बर 2006 तक तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के बताए जा रहे हैं। अब सबसे अहम सवाल उठता है कि आखिर हजारों अभ्यर्थियों में सबसे योग्य तत्कालीन मुख्यमंत्री के गांव सैफई के ही हैं? गौरतलब है कि सैफई इटावा जिले का छोटा सा गांव है। सैफई को अलग करें तो 20 कर्मचारी भी पूरे इटावा के निवासी नहीं हैं। जानकारों का कहना है कि नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान सत्ताधारी नेताओं ने जमकर लाभ उठाया। खासकर खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह यादव। सारी नियुक्तियां थिएटर टेक्नीशियन, प्लास्टर टेक्नीशियन, वर्कशॉप मिस्त्री, इलेक्ट्रीशियन आदि तकनीकि पदों के लावा गैस प्लांट मिस्त्री, जेनरेटर ऑपरेटर आदि पदों पर हुई थी। सैफई के पढ़े लिखे निवासी सिपाही और टेक्नीशियन हो गए और कम पढ़े लिखे फोर्थ ग्रेड की नौकरी पा ली। यहां का युवक पूर्व मुख्यमंत्री की कृपा से अब बेरोजगार नहीं रहा। मायावती सरकार इस राज का पर्दाफाश कर रही है।
आगरा के मेडिकल कॉलेज में नियुक्तियों का दौर एक वर्ष से अधिक समय तक चला। सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मिली जानकारी के अनुसार साढ़े तीन सौ कर्मचारियों की भर्ती के लिए हजारों युवकों ने आवेदन दिया था। दिसम्बर 2006 तक तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के बताए जा रहे हैं। अब सबसे अहम सवाल उठता है कि आखिर हजारों अभ्यर्थियों में सबसे योग्य तत्कालीन मुख्यमंत्री के गांव सैफई के ही हैं? गौरतलब है कि सैफई इटावा जिले का छोटा सा गांव है। सैफई को अलग करें तो 20 कर्मचारी भी पूरे इटावा के निवासी नहीं हैं। जानकारों का कहना है कि नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान सत्ताधारी नेताओं ने जमकर लाभ उठाया। खासकर खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह यादव। सारी नियुक्तियां थिएटर टेक्नीशियन, प्लास्टर टेक्नीशियन, वर्कशॉप मिस्त्री, इलेक्ट्रीशियन आदि तकनीकि पदों के लावा गैस प्लांट मिस्त्री, जेनरेटर ऑपरेटर आदि पदों पर हुई थी। सैफई के पढ़े लिखे निवासी सिपाही और टेक्नीशियन हो गए और कम पढ़े लिखे फोर्थ ग्रेड की नौकरी पा ली। यहां का युवक पूर्व मुख्यमंत्री की कृपा से अब बेरोजगार नहीं रहा। मायावती सरकार इस राज का पर्दाफाश कर रही है।
Tuesday, September 25, 2007
चीन की कंपनी ने बढ़ाई होमियोपैथिक दवाओं की कीमत
गरीबों की पैथी कही जाने वाली होमियोपैथी अब आम लोगों की पहुंच से दूर होने वाली है। इस चिकित्सा पद्धति पर चीन की नजर लग गई है। होमियोपैथी की दवाएं दो प्रकार की होती है। इनमें से एक बायोकेमिक है, जिसे आम आदमी थोड़ी सी जानकारी रखकर भी इसका इस्तेमाल कर सकता है। बायोकेमिक बनाने के लिए हॉलैंड के शुगर ऑफ मिल्क (दूध का विशेष तरह पाउडर) की जरूरत पड़ती है। चीन की एक कंपनी ने हॉलैंड के साथ समझौता कर शुगर ऑफ मिल्क की बिक्री अपने कब्जे में कर लिया है। इसके बाद कीमत तीन से चार गुनी तक बढ़ा दी गई है। इसका असर भारत में होमियोपैथिक दवाओं पर भी हो गया है। जल्द ही कीतम और बढ़ने की बात कही जा रही है।
होमियोपैथिक दवाएं सस्ती और दुष्प्रभाव रहित होती है। इसके कारण गरीब और मध्यम वर्गीय लोगों के बीच दवाएं बहुत लोकप्रिय हो चुकी है। अब कीमत बढने का प्रभाव मरीजों पर ही पड़ रहा है। आम तौर पर होमियोपैथिक चिकित्सक ही परामर्श के साथ दवाएं भी देते हैं। इनमें से कई डॉक्टर बायोकेमिक दवाओं का प्रयोग करते हैं। शुगर ऑफ मिल्क की कीमत बढ़ने के साथ ही डॉक्टरों ने फीस की रकम बढ़ा दी है। दवा विक्रेता योगेश चंद्र शर्मा का कहना है कि छह महीने पहले तक शुगर ऑफ मिल्क सौ रुपये किलोग्राम बिकता था। लेकिन आज इसकी कीमत तीन सौ रुपये तक पहुंच गई है। बायोकेमिक दवाओं का इस्तेमाल आम आदमी भी कर सकता है। सरकार को आमलोगों का ख्याल करते हुए कीमत की बढ़ोत्तरी पर लगाम लगानी चाहिए। अगर यही चलता रहा तो गरीब जनता पर संकट आ जाएगा।
बायोकेमिक दवा की बढ़ती कीमत को देखकर कंपनियों ने होमियोपैथी में प्रयोग होने वाले दूसरी प्रकार की दवा 'डायुशन' और मदर टिंचर के दाम में भी इजाफा कर दिया है। अब इसकी कीमत तीस प्रतिशत तक बढ़ गई है। दूसरी ओर होमियोपैथिक सीरफ, टॉनिक, शैम्पू और तेल की कीमत में पचास फीसदी तक बढोत्तरी कर दी गई है।
एलोपैथिक चिकित्सा में ज्यादा खर्च से परेशान लोगों के लिए होमियोपैथी ही एक सहारा बची थी। अब यह पैथी भी दूर होती जा रही है।
होमियोपैथिक दवाएं सस्ती और दुष्प्रभाव रहित होती है। इसके कारण गरीब और मध्यम वर्गीय लोगों के बीच दवाएं बहुत लोकप्रिय हो चुकी है। अब कीमत बढने का प्रभाव मरीजों पर ही पड़ रहा है। आम तौर पर होमियोपैथिक चिकित्सक ही परामर्श के साथ दवाएं भी देते हैं। इनमें से कई डॉक्टर बायोकेमिक दवाओं का प्रयोग करते हैं। शुगर ऑफ मिल्क की कीमत बढ़ने के साथ ही डॉक्टरों ने फीस की रकम बढ़ा दी है। दवा विक्रेता योगेश चंद्र शर्मा का कहना है कि छह महीने पहले तक शुगर ऑफ मिल्क सौ रुपये किलोग्राम बिकता था। लेकिन आज इसकी कीमत तीन सौ रुपये तक पहुंच गई है। बायोकेमिक दवाओं का इस्तेमाल आम आदमी भी कर सकता है। सरकार को आमलोगों का ख्याल करते हुए कीमत की बढ़ोत्तरी पर लगाम लगानी चाहिए। अगर यही चलता रहा तो गरीब जनता पर संकट आ जाएगा।
बायोकेमिक दवा की बढ़ती कीमत को देखकर कंपनियों ने होमियोपैथी में प्रयोग होने वाले दूसरी प्रकार की दवा 'डायुशन' और मदर टिंचर के दाम में भी इजाफा कर दिया है। अब इसकी कीमत तीस प्रतिशत तक बढ़ गई है। दूसरी ओर होमियोपैथिक सीरफ, टॉनिक, शैम्पू और तेल की कीमत में पचास फीसदी तक बढोत्तरी कर दी गई है।
एलोपैथिक चिकित्सा में ज्यादा खर्च से परेशान लोगों के लिए होमियोपैथी ही एक सहारा बची थी। अब यह पैथी भी दूर होती जा रही है।
Monday, September 24, 2007
बादल
-तारकेश्वर प्रसाद सिंह*
जब बादल का बीज सहेजती
प्रकृति होती है खुश
मुझे लगता है
उसकी खुशियों के कितने आयाम हैं
मसलन फूल की खुशी
चिडियों का पंख
होता जाता है और बड़ा
और इंद्रधनुषी
उसके बोल और प्यारे
जब बादल की कोपलें फूटती हैं
वनों में मृग दौड़ लगाने लगते हैं
ताल तलैयों की मछलियां
उछलने लगती हैं
धरती बिना जबान खोले
अपने अंदर पैदा करने लगती है
सुन्दरता के कई प्रतिमान
धरती आंखुआने लगती है
छोटे-छोटे बच्चे बारिश में भींगते
छोड़ते चले जाते हैं
कविता को पीछे और पीछे
सभ्यता के मालिकों के
कुकर्मों से उपजा शब्द
'पर्यावरण', प्रदूषण छोटा लगता है
उसकी चिंता बौनी
जो लोग धरती को मुठ्ठी में
बंदकर चाहते हैं दौड़ पड़ना
उनके सामने चुनौती अपने अणु परमाणु
भांति-भांति के नाश का सामान
फेंक कर शरणागत हो
धरती की छाती विशाल है
आओ जैसे मां के पास
आता है छोटा बच्चा
जैसे घोसले में आती है चिडिया
*कवि बैंक ऑफ बड़ोदा के मुजफ्फरपुर शाखा में कार्यरत है।
जब बादल का बीज सहेजती
प्रकृति होती है खुश
मुझे लगता है
उसकी खुशियों के कितने आयाम हैं
मसलन फूल की खुशी
चिडियों का पंख
होता जाता है और बड़ा
और इंद्रधनुषी
उसके बोल और प्यारे
जब बादल की कोपलें फूटती हैं
वनों में मृग दौड़ लगाने लगते हैं
ताल तलैयों की मछलियां
उछलने लगती हैं
धरती बिना जबान खोले
अपने अंदर पैदा करने लगती है
सुन्दरता के कई प्रतिमान
धरती आंखुआने लगती है
छोटे-छोटे बच्चे बारिश में भींगते
छोड़ते चले जाते हैं
कविता को पीछे और पीछे
सभ्यता के मालिकों के
कुकर्मों से उपजा शब्द
'पर्यावरण', प्रदूषण छोटा लगता है
उसकी चिंता बौनी
जो लोग धरती को मुठ्ठी में
बंदकर चाहते हैं दौड़ पड़ना
उनके सामने चुनौती अपने अणु परमाणु
भांति-भांति के नाश का सामान
फेंक कर शरणागत हो
धरती की छाती विशाल है
आओ जैसे मां के पास
आता है छोटा बच्चा
जैसे घोसले में आती है चिडिया
*कवि बैंक ऑफ बड़ोदा के मुजफ्फरपुर शाखा में कार्यरत है।
भूकंप नहीं सह पाएगी यमुना में खड़ी इमारत
यमुना के भीतर और किनारे रेत कालोनिया बनाने की होड़ सी मची है। लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि ऐसी कालोनी भूकंप का हल्का झटका भी नहीं सह पाएगी। भूकंप वैज्ञानिकों के अनुसार अगर चार रैक्टर पैमाने की भी हलचल हुई तो ताश के पत्तों की तरह इमारतें ढह जाएंगी। केन्द्र सरकार के शहरी भूकंप भेदता न्यूनीकरण कार्यक्रम (यूईवीआरपी) के अधिकारियों ने नदी में निर्माण को खतरनाक करार दिया है। ऐसी स्थिति में लोगों को यही कहा जाना चाहिए कि नदी के नहीं तो खुद के जीवन के लिए बिल्डिंग न बनाओ।
आगरा भूकंप की दृष्टि से तृतीय खतरा वाला क्षेत्र है। अहमदाबाद भी इसी जोन में है। आगरा में भूकंपन का झटका कभी भी मिल सकता है। यूपी के राहत आयुक्त के नेतृत्व में चल रही यूईवीआरपी के प्रोजेक्ट समन्वयक जीवन पंडित का कहना है कि ठोस मिट्टी पर बनी इमारतों पर भूकंप का असर कम होता है। जबकि यमना और इसके तट रेत से भरा है। भूकंप होने पर रेत में भूजल मिल जाता है, इसे ल्क्विफिकेशन कहते हैं। यह दलदल बनाने का काम करता है। इससे नीव कमजोर हो जाती है और भवन ध्वस्त हो सकता है। भूकंप की दृष्टि से कभी भी नदी के पास निर्माण नहीं करना चाहिए।
बाढ़ के नजरिए से भी निर्माण ठीक नहीं है। मुम्बई में आंख मूंदकर बिल्डिंग बनाई गई और मीठी नदी का स्वरूप पतला हो गया। यही कारण है कि समुद्र का किनारा होने के बावजूद हल्की बारिश में ही मुम्बई में बाढ़ का नजारा देखने को मिलता है। बेंग्लरू की भी यही हालत है। हालांकि यमुना में पानी कम होने की वजह से रेत में नमी कम है, लेकिन पानी बढ़ने पर खतरनाक स्थित पैदा हो सकती है। भूकंपरोधी भवन के लिए भी दलदल सहने की क्षमता होती है।
दूसरी परिस्थिति यह भी हो सकती है कि निर्माण के समय रेत में नमी हो और जब सूख जाय तो यह नमी खत्म हो जाय। इसके बाद नीव के पास जमीन खोखली हो जाती है। यहां निर्माण का मतलब है ''आ बैल मुझे मार''। पर्यावरणविद् राजेन्द्र सिंह कहा कहना है कि ऐसा कर लोग खुद को मौत को दावत दे रहे हैं। हालांकि कानूनन नदी के अंदर निर्माण करना गलत है। पर भ्रष्टाचार के आगे सारे कानून बेकार से हो जाते हैं। यमुना को बचाने के लिए लोगों को खुद ही आगे आना होगा।
आगरा भूकंप की दृष्टि से तृतीय खतरा वाला क्षेत्र है। अहमदाबाद भी इसी जोन में है। आगरा में भूकंपन का झटका कभी भी मिल सकता है। यूपी के राहत आयुक्त के नेतृत्व में चल रही यूईवीआरपी के प्रोजेक्ट समन्वयक जीवन पंडित का कहना है कि ठोस मिट्टी पर बनी इमारतों पर भूकंप का असर कम होता है। जबकि यमना और इसके तट रेत से भरा है। भूकंप होने पर रेत में भूजल मिल जाता है, इसे ल्क्विफिकेशन कहते हैं। यह दलदल बनाने का काम करता है। इससे नीव कमजोर हो जाती है और भवन ध्वस्त हो सकता है। भूकंप की दृष्टि से कभी भी नदी के पास निर्माण नहीं करना चाहिए।
बाढ़ के नजरिए से भी निर्माण ठीक नहीं है। मुम्बई में आंख मूंदकर बिल्डिंग बनाई गई और मीठी नदी का स्वरूप पतला हो गया। यही कारण है कि समुद्र का किनारा होने के बावजूद हल्की बारिश में ही मुम्बई में बाढ़ का नजारा देखने को मिलता है। बेंग्लरू की भी यही हालत है। हालांकि यमुना में पानी कम होने की वजह से रेत में नमी कम है, लेकिन पानी बढ़ने पर खतरनाक स्थित पैदा हो सकती है। भूकंपरोधी भवन के लिए भी दलदल सहने की क्षमता होती है।
दूसरी परिस्थिति यह भी हो सकती है कि निर्माण के समय रेत में नमी हो और जब सूख जाय तो यह नमी खत्म हो जाय। इसके बाद नीव के पास जमीन खोखली हो जाती है। यहां निर्माण का मतलब है ''आ बैल मुझे मार''। पर्यावरणविद् राजेन्द्र सिंह कहा कहना है कि ऐसा कर लोग खुद को मौत को दावत दे रहे हैं। हालांकि कानूनन नदी के अंदर निर्माण करना गलत है। पर भ्रष्टाचार के आगे सारे कानून बेकार से हो जाते हैं। यमुना को बचाने के लिए लोगों को खुद ही आगे आना होगा।
Saturday, September 22, 2007
आगरा में यमुना पर कब्जे की कोशिश

कभी हमारी संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक माने जाने वाली और जीवन देने वाली नदी, ताल-तलैयों को अब हमारी नजर लग गई है। आबादी बढ़ने के साथ ज्यादा पैसे कमाने की चाहत में भू-माफियाओं और बिल्डरों ने पहले तो तालाबों-कुंओं को निगल लिया और अब जीवनदायिनी यमुना को भी निगलना शुरू कर दिया है। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों के बहाने यमुना पर कब्जा तो नजर आ रहा है, लेकिन इसके आगे चुप-चाप सदानीरा नदी को नाला बनाने की साजिश चल रही है। आगरा से होकर गुजरती यमुना के किनारे अब कान्हा और मुगल सम्राट शाहजहां के जमाने की खूबसूरती खो चुकी है। इन किनारों पर ऊंची-ऊंची इमारतें और फार्म हाउस बनने लगे हैं। उपग्रह से लिए गए चित्रों में इस तरह के अतिक्रमण का भयावह नजारा सामने आया है। आगरा के तीन किलोमीटर के दायरे में नदी के भीतर करीब सौ मीटर तक कब्जा हो चुका है। 12 किलोमीटर के दायरे में प्लॉटिंग तक हो चुकी है।
आगरा में यमुना को सिकंदरा से ताजमहल जाने में करीब 38 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। जबकि वायु मार्ग से यह दूरी आठ किलोमीटर के करीब है। इसी का फायदा यहां के बिल्डर उठा रहे हैं। यमुना में अवैध निर्माण चौंकाने वाली स्थिति में पहुंच चुका है। सेटेलाइट से खींची तस्वीरों के अनुसार बल्केश्वर में नदी के अंदर अंधाधुंध इमारतें बन चुकी हैं। दयालबाग स्थित नगला बूढ़ी में नदी के अंदर पूरी कालोनी बसाई जा रही है। दो बहुमंजिली इमारत यमुना में खड़ी हो चुकी है। हालांकि पानी कम होने के कारण देखने में नदी का फासला नजर आता है।दीवार खड़ी कर और मिट्टी डालकर निर्माण हो रहा है। इसके आगे बढ़ें तो यमुना को छूती हुई कालोनियां बसी हुई है। इनके सीवरेज का पानी सीधा यमुना में जाता है। यमुना के साथ-साथ पोइय्या घाट तक करीब 12 किलोमीटर क्षेत्र में नदी के किनारे प्लॉटिंग हो चुकी है। यह सब हो रहा है आगरा विकास प्राधिकरण (एडीए) और स्थानीय पंचायतों की मिलीभगत से। पर्यावरणविद् पवन जैन के अनुसार वायु एवं जल प्रदूषण नियंत्रण कानून 1974 के तहत नदी के वास्तविक स्वरूप में किसी भी प्रकार का निर्माण दंडनीय अवराध है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में दक्षिण भारत में मानसून ने कहर बरपा रखा था। दूसरी ओर बिहार और पश्चिम बंगाल अबतक बाढ़ को कोप झेल रहे हैं। अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नदियों पर कब्जे इसी तरह होते रहेंगे तो यमुना के खूबसूरत नजारे देखने के लिए बनाई गई कालोनियां डूब जाएंगी।
इधर सिटीजन एक्शन ग्रुप ने यमुना को बचाने के लिए दो अक्तूबर को धरना देने का फैसला किया है। इसके संयोजक व वरिष्ठ पत्रकार बृज खंडेलवाल ने बताया कि आगरा के संजय प्लेस स्थित शहीद स्मारक पर यमुना रक्षा कार्यक्रम आयोजित किया गया है।
-Sanmay Prakash.
Friday, September 21, 2007
देश-विदेश में महात्मा गांधी का फरेबी सम्मान
-वैद्यनाथ प्रसाद सिन्हा
युग की विडम्बना है कि मूलरूप में हिंसक-आक्रामक मनोवृति वाले देशों द्वारा संपोषित संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2007 को उनकी मूर्तियां स्थापित कर सम्मानित करने का मन बनाया है। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली के हज पर जाने को चरितार्थ करने वाले दशों में जब अन्य ताकतवर आतंकवादी संगठनों का भय व्याप्त हो गया है, तो उन्हें गांधी की अहिंसा याद आई है। उत्तरी कोरिया, ईरान, इराक, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान जैसे अनेक देशों पर हमले करने-कराने वाले हिंसक देशों को साठ वर्षों तक गांधी याद नहीं आये।
भारत में क्रांतियां तो बहुत हुई। परंतु गांधी के न्याय, अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित आंदोलनों से ही अंततोत्वा भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। उन्हीं की बदौलत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री बने। परंतु पश्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े नेहरू ने गांधीवाद का ही पूरी तरह परित्याग कर दिया, भले ही खादी वस्त्र और गांधी टोपी पहनते रहे। शहरी और मशीनी अर्थव्यवस्था के मॉडल में स्वदेशी अर्थव्यवस्था के सामाजवादी मॉडल के सामने बढ़-चढ़ कर महत्व दिया, हालांकि इससे बेरोजगारी और गरीबी बढ़ने लगी।
देवतातुल्य श्रद्धास्पद माने जाने वाले पंडित नेहरू की सरकार के सामने धीरे-धीरे एक-एक कर समस्याएं खड़ी होती गयीं- कारण गांधी से मत-भिन्नता हो या और कुछ। नेहरू उनका समाधान करने में भारी परेशानी महसूस करने लगे थे, जैसे-मद्रास (आज के तमिलनाडु) में भीषण हिन्दी विरोध, पंजाबी सूबे की मांग। दो हिस्सों में बांटकर आंध्र और कर्नाटक राज्यों की स्थापना की मांग पर उनके नेता श्रीरामुल की बहुत लम्बी भूख हड़ताल पर जाने से मृत्यु हो गई और तत्पश्चात् उनकी मांगे माननी पड़ीं। केरल में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई, जो गैर कांग्रेसी सरकार का पहला उदाहरण था। उसे बहुमत में रहते हुए बहाने से भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। देश में कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और वामपंथी विचारधारा की प्रगति क्रमक्रम से हो रही थी, जिसमें चीन से उपलब्ध पुस्तकों-पत्रिकाओं का योगदान था। पश्चिम बंगाल में वामपंर्थयों को दबाकर कांग्रेस को जीत दिलाये जाने का श्रेय प्रशासनिक भ्रष्टाचार को जाता था। मद्रास में वामपंथी विचारधारा के उभार को रोकने के लिए भारत के अंतिम गवर्नर जेनरल (राष्ट्रपति तुल्य) पद पर रह चुके चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया था, क्योंकि वे सामंतवादी और घोर पूंजीवादी, अमेरिका-परस्त नेता थे। दमन से परेशान वामपंथियों ने ही सम्भवत: नाम बदलकर "द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम्" नामक दलितों-पिछड़ों-गरीबों की पार्टी बना ली। कांग्रेस की अलोकप्रियता बढ़ते जाने से नेहरू के सामने मूल समस्या यह खड़ी थी कि वामपंथी विचारधारा से जनमत को विमुख कर कांग्रेस की ओर कैसे मोड़ा जाय। इस परिप्रेक्ष्य में भी भारत-चीन युद्ध को देखा जा सकता है। यहां गांधी की आत्मनिरीक्षण द्वारा शांतिपूर्ण अहिंसक निदान खोजने की मानसिकता की उपेक्षा का भी समय आया।
जब देश पर बाहरी मुसीबतें आती हैं, तो सारी घरेलु मुसीबतें फीकी होती जान पड़ती है। इसी अवसर पर भारत-चीन समस्या खड़ी हुई है। घुसपैठ के आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे। भारत का आरोप था कि चीन ने हजारों एकड़ जमीन हड़पी हुई है। चीन के आरोपों में यह सुना गया कि भारतीय सीमा सैनिक बिना अनुमति लिए तिब्बत में घुस कर अंडे-मुर्गे खरीद लाते हैं, कि भारत के लोगों ने अमुक संख्या में चीन की भेड़ें चुरा ली है, कि चीन के अरूणाचल क्षेत्र पर भारत ने नाजायज कब्जा कर रखा है। भारत ने जोर-शोर से 'मैकमेहन लाइन' की दुहाई दी। मैक मेहन नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने भारत की आजादी के बहुत पहले भारत-चीन सीमा के निधारण के लिए प्रस्ताव के रूप में कागज पर इस रेखा को खींचा था। मगर यह प्रस्ताव चीनी सरकार के सम्मुख कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। पूरे युद्ध क्षेत्र में घूमे हुए ब्रिटिश पत्रकार जार्ज मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज़ चाइना वार' में इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन किया है। अंतत: 1962 के भारत-चीन युद्ध का माहौल बन गया।
दो पड़ोसी देश परम्परा के अनुसार मिल-बैठ कर सीमा रेखाएं तय किया करते हैं। चीन के प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ ने समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को दोस्ताना बातचीत के लिए पेकिंग या रंगून आने का निमंत्रण दिया। जब इसके लिए नेहरू तैयार नहीं हुए, तो चाउ-एन-ला बिना निमंत्रण के दिल्ली चला आया। मगर बात होनी नहीं थी-नहीं हुई। यह घोषणा हुई कि चीन ने भारत पर हमला कर दिया है। युद्ध जारी हो गया। दोस्ताना समझौता वार्ता से नेहरू का किसी बहाने इन्कार करना गांधी की शांति और अहिंसा की प्रक्रिया के विपरीत था, उनकी मूल भावना का हनन था।
पूर्वी क्षेत्र नेफा के युद्ध प्रभरी लेफ्टिनेंट जेनरल बीएम कौल ने अपनी पुस्तक दि अंटोल्ड स्टोरी में लिखा है कि नियमों और परम्परा के अनुसार लड़ाइयां किसी सैनिक उच्चाधिकारी के निर्देशन-नियंत्ण में लड़ी जाती हैं, परंतु यह लड़ाई नेहरू के निर्देशन-नियंत्रण में लड़ी गई थी। यों कहें कि लड़ाई हुई भी और (ठीक से) हुई भी नहीं। संदेह होता है कि इस छद्म उद्देश्य के लिए लड़ाई का नाटक हुआ। इस युद्ध के संदर्भ में कुलदीप नैयर और पीएन हक्सर की पुस्तकें- बिटविन दि लाइंस और हिमालयन ब्लण्डर्स भी द्रष्टव्य है। रहस्य की बात यह भी है कि सारी पुस्तकें नेहरू की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुई, उनके जीवनकाल में नहीं। आज जब सीमा निर्धारण के लिए दोस्ताना वार्ताएं चल रही हैं तो हाय-तौबा मचाने वाली मैकमेहन लाइन और चीन द्वारा हड़पी गयी हजारों एकड़ जमीन की चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ती।
गांधी जी ने भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे देशप्रेमी क्रांतिकारियों के हिंसक समाजवाद को भले ही स्वीकार नहीं किया हो, या साम्यवाद की व्यावहारिकता के कायल नहीं हुए हों, परंतु उनका आंदोलन समाज में व्याप्त गरीबी, विषमता, शोषण सामंतवाद और भेदभाव को प्रभावी ढंग से समाप्त करने के लिए ही था न कि अंग्रेजों से सिर्फ सत्ता छीनने के लिए। उनकी दृष्टि इस पर थी कि किसी कार्य-योजना का लाभ मुख्यत: गरीबों तक पहुंचता है या नहीं। इसके ठीक विपरीत आज सारी सरकारी योजनाओं का लाभ धनकुबेरों को मिलता है। गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ भी मूलत: सत्ताधारियों, ठेकेदारों, अधिकारियो-कर्मचारियों और बिचौलिए दलालों को मिलता है।
कांग्रेस की परवर्ती सरकारों के काल में भारतीय मुद्रावाले नोटों पर तिरस्कृत गांधी का चित्र बैठा देना, या प्रतीक रूप में उन्हें नोटों में कैद करके रखना उनका मजाक उड़ाना है, क्योंकि उनकी सारी नीतियों को अमान्य किया हुआ है। नीतियों के संबंध में जनता को बरगलाने का भी एक हथकंडा है। मुख में राम, बगल में छुरी। पूंजीवादी अन्य देश किसी दांव-पेच की मानसिकता से गांधी को सम्मानित करनाचाहते हैं, तो यह उनकी अपनी (दूषित) राजनीति है।
व्यवसायियों-उद्योगपतियों की संस्था, फिक्की के वार्षिक अधिवेशन 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उलटबांसी की कि बोरोजगारी दूर करने के लिए अधिक से अधिक बड़े उद्योगों की स्थापना आवश्यक है। एक विख्यात अर्थशास्त्री का यह अजूबा बिलायती अर्थशास्त्र है। एक अदना आदमी भी कह सकता है कि मशीनों का काम ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को हटाकर और कम से कम मजदूरों से काम लेकर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करना है, जिसका सीधा लाभ उद्योगपतियों को मिलता है, मजदूरों को नहीं। फिर बेरोजगारी दूर होने की बात कहां से आती है?
फिक्की की ही सभा में मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों से नम्र निवेदन किया कि वे अपने मुख्य कार्यान्वयन अधिकारी को जो करोड़ों का वेतन देते हैं, उसे घटाएं और कमजोर तबकों को भी अपने उद्योगों में नौकरियां दें। उद्योगपतियों ने गहन चिंतन के बाद उनकी दयनीय निवेदन को अस्वीकृत कर दिया। आपने अपने पद का अपमान कराया। लोकसभा-राज्यसभा के माध्यम से समुचित कानून बनाकर उद्योगों को नियंत्रित करने, लाभकारी उद्योगों को भूमिकरों, उत्पादकरों और आयकरों पर दी जाने वाली छूटों-रियायतों को समाप्त करने का अधिकार सरकार को है। लाभकारी उद्योगों को सहायता की जरूरत ही क्यों है? 8 घंटों की शिफ्टों को 6 घंटों की शिफ्टों में बदलकर रोजाना 3 शिफ्ट वाले उद्योगों में 4 शिफ्टें करने से रोजगार बढ़ेगा। सीईओ के वेतन में कटौती करने की भी मजबूरी आयेगी।
महात्मा गांधी मशीनों और वैज्ञानिक विकास के विरोधी नहीं थे। वे स्वयं भी उनका उपयोग-उपभोग यदा-कदा करते ही थे। उनका चरखा-करघा और घड़ी एक एक मशीन ही है। परंतु वे जानते थे कि बड़े उद्योगों (मशीनों) की उत्पादन क्षमता का लाभ गरीबों को दिलाने में न तो समाज कुछ कर सकेगा, और न सरकार में इच्छा-शक्ति होगी। इसलिए उन्होंने लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना की वकालत की। जिन उद्योगों (मशीनों) का विकल्प नहीं है, उन पर तो विवाद ही नहीं है। विवाद तो तब उठता है, जब बड़ी मशीनें बड़े पैमाने पर आदमी को बेरोजगार और बेसहारा बनाती हैं, और सरकार इसका कोई समाधान नहीं ढूंढ पाती।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क्रिय-कलापों में जो भी त्रुटियां हों, परंतु उनके कार्यकाल में भारतीय संविधान के उद्देश्यों में समाजवाद (लाना) शामिल किया गया था। मगर परवर्ती सत्ताधारियों ने देश पर अघोषित, घोर पूंजीवाद लाद दिया। सारे सार्वजनिक उद्योगों को निजी हाथों में बेचना शुरू कर दिया। हजारों-लाखों एकड़ जमीन के मालिकों से आधे-अधूरे मूल्य पर छीन कर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने के लिए विदेशी-स्वदेशी कंपनियों के हाथों सौंप रही है, और भूस्वामियों को विस्थापित अनाथ और बेराजगार बना रही है। इतना भी राजनीतिक शऊर नहीं रहा कि समाजवादी संविधान से समाजवाद शब्द को विलोपित करा दे। क्या कमाल है- संविधान में समाजवाद और देश में पूंजीवाद।
कौन जाने, इंदिरा गांधी और मोहनदास करमचंद गांधी की दिव्य आत्माएं स्वर्ग में क्या महसूस करती होंगी!
युग की विडम्बना है कि मूलरूप में हिंसक-आक्रामक मनोवृति वाले देशों द्वारा संपोषित संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2007 को उनकी मूर्तियां स्थापित कर सम्मानित करने का मन बनाया है। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली के हज पर जाने को चरितार्थ करने वाले दशों में जब अन्य ताकतवर आतंकवादी संगठनों का भय व्याप्त हो गया है, तो उन्हें गांधी की अहिंसा याद आई है। उत्तरी कोरिया, ईरान, इराक, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान जैसे अनेक देशों पर हमले करने-कराने वाले हिंसक देशों को साठ वर्षों तक गांधी याद नहीं आये।
भारत में क्रांतियां तो बहुत हुई। परंतु गांधी के न्याय, अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित आंदोलनों से ही अंततोत्वा भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। उन्हीं की बदौलत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री बने। परंतु पश्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े नेहरू ने गांधीवाद का ही पूरी तरह परित्याग कर दिया, भले ही खादी वस्त्र और गांधी टोपी पहनते रहे। शहरी और मशीनी अर्थव्यवस्था के मॉडल में स्वदेशी अर्थव्यवस्था के सामाजवादी मॉडल के सामने बढ़-चढ़ कर महत्व दिया, हालांकि इससे बेरोजगारी और गरीबी बढ़ने लगी।
देवतातुल्य श्रद्धास्पद माने जाने वाले पंडित नेहरू की सरकार के सामने धीरे-धीरे एक-एक कर समस्याएं खड़ी होती गयीं- कारण गांधी से मत-भिन्नता हो या और कुछ। नेहरू उनका समाधान करने में भारी परेशानी महसूस करने लगे थे, जैसे-मद्रास (आज के तमिलनाडु) में भीषण हिन्दी विरोध, पंजाबी सूबे की मांग। दो हिस्सों में बांटकर आंध्र और कर्नाटक राज्यों की स्थापना की मांग पर उनके नेता श्रीरामुल की बहुत लम्बी भूख हड़ताल पर जाने से मृत्यु हो गई और तत्पश्चात् उनकी मांगे माननी पड़ीं। केरल में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई, जो गैर कांग्रेसी सरकार का पहला उदाहरण था। उसे बहुमत में रहते हुए बहाने से भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। देश में कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और वामपंथी विचारधारा की प्रगति क्रमक्रम से हो रही थी, जिसमें चीन से उपलब्ध पुस्तकों-पत्रिकाओं का योगदान था। पश्चिम बंगाल में वामपंर्थयों को दबाकर कांग्रेस को जीत दिलाये जाने का श्रेय प्रशासनिक भ्रष्टाचार को जाता था। मद्रास में वामपंथी विचारधारा के उभार को रोकने के लिए भारत के अंतिम गवर्नर जेनरल (राष्ट्रपति तुल्य) पद पर रह चुके चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया था, क्योंकि वे सामंतवादी और घोर पूंजीवादी, अमेरिका-परस्त नेता थे। दमन से परेशान वामपंथियों ने ही सम्भवत: नाम बदलकर "द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम्" नामक दलितों-पिछड़ों-गरीबों की पार्टी बना ली। कांग्रेस की अलोकप्रियता बढ़ते जाने से नेहरू के सामने मूल समस्या यह खड़ी थी कि वामपंथी विचारधारा से जनमत को विमुख कर कांग्रेस की ओर कैसे मोड़ा जाय। इस परिप्रेक्ष्य में भी भारत-चीन युद्ध को देखा जा सकता है। यहां गांधी की आत्मनिरीक्षण द्वारा शांतिपूर्ण अहिंसक निदान खोजने की मानसिकता की उपेक्षा का भी समय आया।
जब देश पर बाहरी मुसीबतें आती हैं, तो सारी घरेलु मुसीबतें फीकी होती जान पड़ती है। इसी अवसर पर भारत-चीन समस्या खड़ी हुई है। घुसपैठ के आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे। भारत का आरोप था कि चीन ने हजारों एकड़ जमीन हड़पी हुई है। चीन के आरोपों में यह सुना गया कि भारतीय सीमा सैनिक बिना अनुमति लिए तिब्बत में घुस कर अंडे-मुर्गे खरीद लाते हैं, कि भारत के लोगों ने अमुक संख्या में चीन की भेड़ें चुरा ली है, कि चीन के अरूणाचल क्षेत्र पर भारत ने नाजायज कब्जा कर रखा है। भारत ने जोर-शोर से 'मैकमेहन लाइन' की दुहाई दी। मैक मेहन नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने भारत की आजादी के बहुत पहले भारत-चीन सीमा के निधारण के लिए प्रस्ताव के रूप में कागज पर इस रेखा को खींचा था। मगर यह प्रस्ताव चीनी सरकार के सम्मुख कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। पूरे युद्ध क्षेत्र में घूमे हुए ब्रिटिश पत्रकार जार्ज मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज़ चाइना वार' में इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन किया है। अंतत: 1962 के भारत-चीन युद्ध का माहौल बन गया।
दो पड़ोसी देश परम्परा के अनुसार मिल-बैठ कर सीमा रेखाएं तय किया करते हैं। चीन के प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ ने समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को दोस्ताना बातचीत के लिए पेकिंग या रंगून आने का निमंत्रण दिया। जब इसके लिए नेहरू तैयार नहीं हुए, तो चाउ-एन-ला बिना निमंत्रण के दिल्ली चला आया। मगर बात होनी नहीं थी-नहीं हुई। यह घोषणा हुई कि चीन ने भारत पर हमला कर दिया है। युद्ध जारी हो गया। दोस्ताना समझौता वार्ता से नेहरू का किसी बहाने इन्कार करना गांधी की शांति और अहिंसा की प्रक्रिया के विपरीत था, उनकी मूल भावना का हनन था।
पूर्वी क्षेत्र नेफा के युद्ध प्रभरी लेफ्टिनेंट जेनरल बीएम कौल ने अपनी पुस्तक दि अंटोल्ड स्टोरी में लिखा है कि नियमों और परम्परा के अनुसार लड़ाइयां किसी सैनिक उच्चाधिकारी के निर्देशन-नियंत्ण में लड़ी जाती हैं, परंतु यह लड़ाई नेहरू के निर्देशन-नियंत्रण में लड़ी गई थी। यों कहें कि लड़ाई हुई भी और (ठीक से) हुई भी नहीं। संदेह होता है कि इस छद्म उद्देश्य के लिए लड़ाई का नाटक हुआ। इस युद्ध के संदर्भ में कुलदीप नैयर और पीएन हक्सर की पुस्तकें- बिटविन दि लाइंस और हिमालयन ब्लण्डर्स भी द्रष्टव्य है। रहस्य की बात यह भी है कि सारी पुस्तकें नेहरू की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुई, उनके जीवनकाल में नहीं। आज जब सीमा निर्धारण के लिए दोस्ताना वार्ताएं चल रही हैं तो हाय-तौबा मचाने वाली मैकमेहन लाइन और चीन द्वारा हड़पी गयी हजारों एकड़ जमीन की चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ती।
गांधी जी ने भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे देशप्रेमी क्रांतिकारियों के हिंसक समाजवाद को भले ही स्वीकार नहीं किया हो, या साम्यवाद की व्यावहारिकता के कायल नहीं हुए हों, परंतु उनका आंदोलन समाज में व्याप्त गरीबी, विषमता, शोषण सामंतवाद और भेदभाव को प्रभावी ढंग से समाप्त करने के लिए ही था न कि अंग्रेजों से सिर्फ सत्ता छीनने के लिए। उनकी दृष्टि इस पर थी कि किसी कार्य-योजना का लाभ मुख्यत: गरीबों तक पहुंचता है या नहीं। इसके ठीक विपरीत आज सारी सरकारी योजनाओं का लाभ धनकुबेरों को मिलता है। गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ भी मूलत: सत्ताधारियों, ठेकेदारों, अधिकारियो-कर्मचारियों और बिचौलिए दलालों को मिलता है।
कांग्रेस की परवर्ती सरकारों के काल में भारतीय मुद्रावाले नोटों पर तिरस्कृत गांधी का चित्र बैठा देना, या प्रतीक रूप में उन्हें नोटों में कैद करके रखना उनका मजाक उड़ाना है, क्योंकि उनकी सारी नीतियों को अमान्य किया हुआ है। नीतियों के संबंध में जनता को बरगलाने का भी एक हथकंडा है। मुख में राम, बगल में छुरी। पूंजीवादी अन्य देश किसी दांव-पेच की मानसिकता से गांधी को सम्मानित करनाचाहते हैं, तो यह उनकी अपनी (दूषित) राजनीति है।
व्यवसायियों-उद्योगपतियों की संस्था, फिक्की के वार्षिक अधिवेशन 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उलटबांसी की कि बोरोजगारी दूर करने के लिए अधिक से अधिक बड़े उद्योगों की स्थापना आवश्यक है। एक विख्यात अर्थशास्त्री का यह अजूबा बिलायती अर्थशास्त्र है। एक अदना आदमी भी कह सकता है कि मशीनों का काम ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को हटाकर और कम से कम मजदूरों से काम लेकर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करना है, जिसका सीधा लाभ उद्योगपतियों को मिलता है, मजदूरों को नहीं। फिर बेरोजगारी दूर होने की बात कहां से आती है?
फिक्की की ही सभा में मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों से नम्र निवेदन किया कि वे अपने मुख्य कार्यान्वयन अधिकारी को जो करोड़ों का वेतन देते हैं, उसे घटाएं और कमजोर तबकों को भी अपने उद्योगों में नौकरियां दें। उद्योगपतियों ने गहन चिंतन के बाद उनकी दयनीय निवेदन को अस्वीकृत कर दिया। आपने अपने पद का अपमान कराया। लोकसभा-राज्यसभा के माध्यम से समुचित कानून बनाकर उद्योगों को नियंत्रित करने, लाभकारी उद्योगों को भूमिकरों, उत्पादकरों और आयकरों पर दी जाने वाली छूटों-रियायतों को समाप्त करने का अधिकार सरकार को है। लाभकारी उद्योगों को सहायता की जरूरत ही क्यों है? 8 घंटों की शिफ्टों को 6 घंटों की शिफ्टों में बदलकर रोजाना 3 शिफ्ट वाले उद्योगों में 4 शिफ्टें करने से रोजगार बढ़ेगा। सीईओ के वेतन में कटौती करने की भी मजबूरी आयेगी।
महात्मा गांधी मशीनों और वैज्ञानिक विकास के विरोधी नहीं थे। वे स्वयं भी उनका उपयोग-उपभोग यदा-कदा करते ही थे। उनका चरखा-करघा और घड़ी एक एक मशीन ही है। परंतु वे जानते थे कि बड़े उद्योगों (मशीनों) की उत्पादन क्षमता का लाभ गरीबों को दिलाने में न तो समाज कुछ कर सकेगा, और न सरकार में इच्छा-शक्ति होगी। इसलिए उन्होंने लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना की वकालत की। जिन उद्योगों (मशीनों) का विकल्प नहीं है, उन पर तो विवाद ही नहीं है। विवाद तो तब उठता है, जब बड़ी मशीनें बड़े पैमाने पर आदमी को बेरोजगार और बेसहारा बनाती हैं, और सरकार इसका कोई समाधान नहीं ढूंढ पाती।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क्रिय-कलापों में जो भी त्रुटियां हों, परंतु उनके कार्यकाल में भारतीय संविधान के उद्देश्यों में समाजवाद (लाना) शामिल किया गया था। मगर परवर्ती सत्ताधारियों ने देश पर अघोषित, घोर पूंजीवाद लाद दिया। सारे सार्वजनिक उद्योगों को निजी हाथों में बेचना शुरू कर दिया। हजारों-लाखों एकड़ जमीन के मालिकों से आधे-अधूरे मूल्य पर छीन कर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने के लिए विदेशी-स्वदेशी कंपनियों के हाथों सौंप रही है, और भूस्वामियों को विस्थापित अनाथ और बेराजगार बना रही है। इतना भी राजनीतिक शऊर नहीं रहा कि समाजवादी संविधान से समाजवाद शब्द को विलोपित करा दे। क्या कमाल है- संविधान में समाजवाद और देश में पूंजीवाद।
कौन जाने, इंदिरा गांधी और मोहनदास करमचंद गांधी की दिव्य आत्माएं स्वर्ग में क्या महसूस करती होंगी!
Wednesday, September 19, 2007
पानी की जगह यमुना में है बालू ही बालू
-सन्मय प्रकाश
अविरल यमुना नदी में पानी की जगह बालू ही बालू है। नदी की तलहटी में जगह-जगह बालू के टीले खड़े हो गए हैं। पानी को बहने के लिए भी रास्ता तलाशना पड़ रहा है। दिल्ली से मथुरा तक बांधों की शृंखला ने नदी की धार पहले ही खत्म कर दी थी। यही कारण है कि अब बालू इसकी राह में दीवार बनकर खड़े हो गए हैं। प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर अरबों रुपए खर्च करने वाली सरकार और एजेंसियों को दुर्व्यवस्था के इस आलम की चिंता नहीं है। अगर यमुना के तलहटी से बालू नहीं हटाया गया तो इसके मरने की नौबत आ जाएगी।
अबतक यमुना के जीवन के लिए प्रदूषण ही एक समस्या नजर आ रही थी। इसके लिए तमाम रणनीति बनाई गई। लेकिन रणनीतिकारों ने यह नहीं सोचा कि सदा अविरल बहने वाली इस नदी को आगे बढ़ने के लिए चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आज यमुना के लिए यह सबसे प्रमुख समस्या बनकर उभर रही है। दिल्ली से आगरा तक पहुंचने में चार बैराज को पार करने में गंदे पानी सीवरेज से भरी यमुना की धार तार-तार हो जाती है। काले रंग में रंगी यमुना को ताजमहल के पास पहुंचने के लिए बालू के टीलों से मशक्कत करनी पड़ रही है। बालू इस कदर जमा हो गया है कि कई जगह तीन फिट पर ही नदी बह रही है। आगरा के जवाहर पुल, स्ट्रेची पुल के पास तलहटी की स्थिति नदी के बाहर की जमीन से ज्यादा ऊंची हो गई है। जगह-जगह बालुओं के टापू बन गए हैं। हालत यह है कि कुछ जगह नदी को पार करने के दौरान पानी कमर तक ही आता है। यदि ड्रेजर से बालुओं को यमुना की तलहटी से हटा लिया जाय तो पानी के बहाव मं गति आ जाएगी। इससे पानी के स्वयं स्वच्छ होने में सहायता मिलेगी। यमुना एक्शन प्लान-द्वितीय के प्रभारी सुरेश चंद्रा कहते हैं कि ड्रेजिंग का काम राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एनआरसीडी) का है। लेकिन पूछ जाने पर कि नदी के जीवन के लिए क्या कोई प्रस्ताव भेजे गए हैं? उन्होंने बताया कि इस संबंध में कभी सोचा नहीं गया। गौरतलब है कि यमुना एक्शन प्लान एनआरडीसी के अंतर्गत चल रहा है। कुछ वर्ष पहले ड्रेजर मंगाकर बालू हटाए जाने की बात हुई थी, हालांकि कोई कदम नहीं उठाए गए। अभी प्रशासन ने छह स्थान पर बालू उत्खनन का ठेका दिया है। हालांकि यह नदी में जम रहे बालू को हटाने में नाकाफी है। पर्यावरणविद् बृज खंडेलवाल का कहना है कि अगर बालू नहीं हटाए गए तो नदी को बचाने की कोशिश बेकार हो जाएगी।
अविरल यमुना नदी में पानी की जगह बालू ही बालू है। नदी की तलहटी में जगह-जगह बालू के टीले खड़े हो गए हैं। पानी को बहने के लिए भी रास्ता तलाशना पड़ रहा है। दिल्ली से मथुरा तक बांधों की शृंखला ने नदी की धार पहले ही खत्म कर दी थी। यही कारण है कि अब बालू इसकी राह में दीवार बनकर खड़े हो गए हैं। प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर अरबों रुपए खर्च करने वाली सरकार और एजेंसियों को दुर्व्यवस्था के इस आलम की चिंता नहीं है। अगर यमुना के तलहटी से बालू नहीं हटाया गया तो इसके मरने की नौबत आ जाएगी।
अबतक यमुना के जीवन के लिए प्रदूषण ही एक समस्या नजर आ रही थी। इसके लिए तमाम रणनीति बनाई गई। लेकिन रणनीतिकारों ने यह नहीं सोचा कि सदा अविरल बहने वाली इस नदी को आगे बढ़ने के लिए चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आज यमुना के लिए यह सबसे प्रमुख समस्या बनकर उभर रही है। दिल्ली से आगरा तक पहुंचने में चार बैराज को पार करने में गंदे पानी सीवरेज से भरी यमुना की धार तार-तार हो जाती है। काले रंग में रंगी यमुना को ताजमहल के पास पहुंचने के लिए बालू के टीलों से मशक्कत करनी पड़ रही है। बालू इस कदर जमा हो गया है कि कई जगह तीन फिट पर ही नदी बह रही है। आगरा के जवाहर पुल, स्ट्रेची पुल के पास तलहटी की स्थिति नदी के बाहर की जमीन से ज्यादा ऊंची हो गई है। जगह-जगह बालुओं के टापू बन गए हैं। हालत यह है कि कुछ जगह नदी को पार करने के दौरान पानी कमर तक ही आता है। यदि ड्रेजर से बालुओं को यमुना की तलहटी से हटा लिया जाय तो पानी के बहाव मं गति आ जाएगी। इससे पानी के स्वयं स्वच्छ होने में सहायता मिलेगी। यमुना एक्शन प्लान-द्वितीय के प्रभारी सुरेश चंद्रा कहते हैं कि ड्रेजिंग का काम राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एनआरसीडी) का है। लेकिन पूछ जाने पर कि नदी के जीवन के लिए क्या कोई प्रस्ताव भेजे गए हैं? उन्होंने बताया कि इस संबंध में कभी सोचा नहीं गया। गौरतलब है कि यमुना एक्शन प्लान एनआरडीसी के अंतर्गत चल रहा है। कुछ वर्ष पहले ड्रेजर मंगाकर बालू हटाए जाने की बात हुई थी, हालांकि कोई कदम नहीं उठाए गए। अभी प्रशासन ने छह स्थान पर बालू उत्खनन का ठेका दिया है। हालांकि यह नदी में जम रहे बालू को हटाने में नाकाफी है। पर्यावरणविद् बृज खंडेलवाल का कहना है कि अगर बालू नहीं हटाए गए तो नदी को बचाने की कोशिश बेकार हो जाएगी।
Monday, September 17, 2007
अरावली के साथ खत्म हो रहा है ताजमहल का सुरक्षा कवच
पारिस्थितकीय असंतुलन का असर व्यापक होता जा रहा है। ब्रज क्षेत्र से गुजरने वाली अरावली पर्वत श्रृंखला के विनाश के साथ ताजमहल का सुरक्षा कवच खत्म हो रहा है। खान माफिया भरतपुर, मथुरा, और आगरा के ताज ट्रेपेजियम जोन (टीटीजेड) में हर दिन डायनामाइट से पहाड़ों के परखचे उड़ा रहे हैं। खनन के साथ ही साल दर साल पहाड़ घटते जा रहे हैं और राजस्थान से चलने वाली धूल भरी आंधी सीधे आगरा पहुंच रही है। रेत के कण लगातार ताजमहल पर प्रहार कर रहे हैं। इसके संगमरमर का लगातार क्षय हो रहा है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि अगर पहाड़ों के खनन को न रोका गया तो इस स्मारक की खूबसूरती का ह्रास जारी रहेगा।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पिछले बीस सालों के आंकड़ों ने चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए हैं। सीपीसीबी के अनुसार वर्ष 1987 में आगरा में एसपीएम की मात्रा 416 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर धूलकणों को मापा गया था। जबकि वर्ष 2006 में यह आंकड़ा बढ़कर 637 माइक्रोग्राम हो गया है। अरावली पर्वत और उसका घना वन रेगिस्तान की धूल भरी आंधी को आगरा की ओर जाने से रोकता है। लेकिन कई पर्वतों की मौत के बाद आंधी को रोकने वाला यह कवच भी खत्म हो गया है। वर्ष के आठ महीने आगरा को ऐसी आंधियों का कोप झेलना पड़ता है।
टीटीजेड क्षेत्र में अरावली की पर्वत श्रृंखला के उत्खनन पर सर्वोच्च न्यायालय रोक लगा चुकी है। फिर भी तमाम नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर भतरपुर के कामां, मथुरा के बरसाना तहसील के चिकसौली गांव, अगरा के अछनेरा तहसील स्थित पुरामना और बहरावती तथा फतेहपुर सीकरी के पास राजस्थान सीमा के डाबर गांव में पहाड़ों से सैकड़ों ट्रक पत्थर हर दिन निकाले जा रहे हैं। प्रत्येक पहाड़ के आस-पास पत्थर तोड़ने की क्रशर मशीन लगी है। पत्थरों के खनन के साथ ही साल दर साल हजारों घने पेड़ों को काटा जा रहा है। दहशत में डालने वाली डायनामाइट के विस्फोट की आवाज के साथ ही पहाड़ों पर कई जिंदगियां भी खत्म होती है। सीपीसीबी के अधिकारी डॉ:डी साहा की रिपोर्ट के मुताबिक चार-पांच वषों में हुई खुदाई से समूचा वन क्षेत्र तहस-नहस हो गया है। इसके साथ ही पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो गई है।
ताजमहल के संरक्षण के लिए विशेष क्षेत्र को टीटीजेड घोषित किया गया था। फिर भी यहां विनाशलीला चल रही है। डॉ:साहा के मुताबिक ताजमहल की खूबसूरती में कमी आने और नुकसान का यह बड़ा प्राकृतिक कारण है। गौरतलब है कि विश्वदायक स्मारक ताजमहल को सुरक्षित रखने के लिए के नाम पर आगरा और इसके आस-पास के क्षेत्रों के 212 उद्योगों और 450 ईंट भट्ठों को बंद कराया जा चुके हैं। इसके कारण धूलकणों की मात्रा वर्ष 2001 में थोड़ी कमी आई थी। लेकिन अब स्थिति और गंभीर हो चुकी है। पहाड़ों की रक्षा में ब्रज रक्षक दल कुछ वर्षों से आंदोलन छेड़ रखा है। दल के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण का कहना है कि ब्रज पर्वत श्रृंखला के कटने से रेगिस्तानी भू-भाग बढ़ रहा है। पर्वतों का विनाश कर गड्ढे छोड़े जा रहे हैं। ब्रज के पर्वत 17800 एकड़ में फैले हुए हैं। इतना बड़ा क्षेत्र होने के कारण कृष्ण की लीलास्थली पर खनन माफिया की नजर है। आमलोगों को पर्वत के बचाव के लिए आगे आना होगा।
-सन्मय प्रकाश
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पिछले बीस सालों के आंकड़ों ने चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए हैं। सीपीसीबी के अनुसार वर्ष 1987 में आगरा में एसपीएम की मात्रा 416 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर धूलकणों को मापा गया था। जबकि वर्ष 2006 में यह आंकड़ा बढ़कर 637 माइक्रोग्राम हो गया है। अरावली पर्वत और उसका घना वन रेगिस्तान की धूल भरी आंधी को आगरा की ओर जाने से रोकता है। लेकिन कई पर्वतों की मौत के बाद आंधी को रोकने वाला यह कवच भी खत्म हो गया है। वर्ष के आठ महीने आगरा को ऐसी आंधियों का कोप झेलना पड़ता है।
टीटीजेड क्षेत्र में अरावली की पर्वत श्रृंखला के उत्खनन पर सर्वोच्च न्यायालय रोक लगा चुकी है। फिर भी तमाम नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर भतरपुर के कामां, मथुरा के बरसाना तहसील के चिकसौली गांव, अगरा के अछनेरा तहसील स्थित पुरामना और बहरावती तथा फतेहपुर सीकरी के पास राजस्थान सीमा के डाबर गांव में पहाड़ों से सैकड़ों ट्रक पत्थर हर दिन निकाले जा रहे हैं। प्रत्येक पहाड़ के आस-पास पत्थर तोड़ने की क्रशर मशीन लगी है। पत्थरों के खनन के साथ ही साल दर साल हजारों घने पेड़ों को काटा जा रहा है। दहशत में डालने वाली डायनामाइट के विस्फोट की आवाज के साथ ही पहाड़ों पर कई जिंदगियां भी खत्म होती है। सीपीसीबी के अधिकारी डॉ:डी साहा की रिपोर्ट के मुताबिक चार-पांच वषों में हुई खुदाई से समूचा वन क्षेत्र तहस-नहस हो गया है। इसके साथ ही पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो गई है।
ताजमहल के संरक्षण के लिए विशेष क्षेत्र को टीटीजेड घोषित किया गया था। फिर भी यहां विनाशलीला चल रही है। डॉ:साहा के मुताबिक ताजमहल की खूबसूरती में कमी आने और नुकसान का यह बड़ा प्राकृतिक कारण है। गौरतलब है कि विश्वदायक स्मारक ताजमहल को सुरक्षित रखने के लिए के नाम पर आगरा और इसके आस-पास के क्षेत्रों के 212 उद्योगों और 450 ईंट भट्ठों को बंद कराया जा चुके हैं। इसके कारण धूलकणों की मात्रा वर्ष 2001 में थोड़ी कमी आई थी। लेकिन अब स्थिति और गंभीर हो चुकी है। पहाड़ों की रक्षा में ब्रज रक्षक दल कुछ वर्षों से आंदोलन छेड़ रखा है। दल के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण का कहना है कि ब्रज पर्वत श्रृंखला के कटने से रेगिस्तानी भू-भाग बढ़ रहा है। पर्वतों का विनाश कर गड्ढे छोड़े जा रहे हैं। ब्रज के पर्वत 17800 एकड़ में फैले हुए हैं। इतना बड़ा क्षेत्र होने के कारण कृष्ण की लीलास्थली पर खनन माफिया की नजर है। आमलोगों को पर्वत के बचाव के लिए आगे आना होगा।
-सन्मय प्रकाश
अंतिम इच्छा
- ओपी सरीन, आगरा।
अंतिम इच्छा
जब कोई नहीं रह जाएगा
साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरयों, गिलहरियों से
बिछुड़कर जाएगा
एक वृक्ष।
अग्नि प्रवेश करेगा वही
मुझसे पहले,
कितनी लकड़ी लगेगी
श्मशान की टाल वाला पूछेगा।
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूं अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो
मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे
संसार में।
अंतिम इच्छा
जब कोई नहीं रह जाएगा
साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरयों, गिलहरियों से
बिछुड़कर जाएगा
एक वृक्ष।
अग्नि प्रवेश करेगा वही
मुझसे पहले,
कितनी लकड़ी लगेगी
श्मशान की टाल वाला पूछेगा।
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूं अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो
मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे
संसार में।
Subscribe to:
Posts (Atom)