-वैद्यनाथ प्रसाद सिन्हा
युग की विडम्बना है कि मूलरूप में हिंसक-आक्रामक मनोवृति वाले देशों द्वारा संपोषित संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2007 को उनकी मूर्तियां स्थापित कर सम्मानित करने का मन बनाया है। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली के हज पर जाने को चरितार्थ करने वाले दशों में जब अन्य ताकतवर आतंकवादी संगठनों का भय व्याप्त हो गया है, तो उन्हें गांधी की अहिंसा याद आई है। उत्तरी कोरिया, ईरान, इराक, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान जैसे अनेक देशों पर हमले करने-कराने वाले हिंसक देशों को साठ वर्षों तक गांधी याद नहीं आये।
भारत में क्रांतियां तो बहुत हुई। परंतु गांधी के न्याय, अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित आंदोलनों से ही अंततोत्वा भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। उन्हीं की बदौलत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री बने। परंतु पश्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े नेहरू ने गांधीवाद का ही पूरी तरह परित्याग कर दिया, भले ही खादी वस्त्र और गांधी टोपी पहनते रहे। शहरी और मशीनी अर्थव्यवस्था के मॉडल में स्वदेशी अर्थव्यवस्था के सामाजवादी मॉडल के सामने बढ़-चढ़ कर महत्व दिया, हालांकि इससे बेरोजगारी और गरीबी बढ़ने लगी।
देवतातुल्य श्रद्धास्पद माने जाने वाले पंडित नेहरू की सरकार के सामने धीरे-धीरे एक-एक कर समस्याएं खड़ी होती गयीं- कारण गांधी से मत-भिन्नता हो या और कुछ। नेहरू उनका समाधान करने में भारी परेशानी महसूस करने लगे थे, जैसे-मद्रास (आज के तमिलनाडु) में भीषण हिन्दी विरोध, पंजाबी सूबे की मांग। दो हिस्सों में बांटकर आंध्र और कर्नाटक राज्यों की स्थापना की मांग पर उनके नेता श्रीरामुल की बहुत लम्बी भूख हड़ताल पर जाने से मृत्यु हो गई और तत्पश्चात् उनकी मांगे माननी पड़ीं। केरल में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई, जो गैर कांग्रेसी सरकार का पहला उदाहरण था। उसे बहुमत में रहते हुए बहाने से भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। देश में कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और वामपंथी विचारधारा की प्रगति क्रमक्रम से हो रही थी, जिसमें चीन से उपलब्ध पुस्तकों-पत्रिकाओं का योगदान था। पश्चिम बंगाल में वामपंर्थयों को दबाकर कांग्रेस को जीत दिलाये जाने का श्रेय प्रशासनिक भ्रष्टाचार को जाता था। मद्रास में वामपंथी विचारधारा के उभार को रोकने के लिए भारत के अंतिम गवर्नर जेनरल (राष्ट्रपति तुल्य) पद पर रह चुके चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया था, क्योंकि वे सामंतवादी और घोर पूंजीवादी, अमेरिका-परस्त नेता थे। दमन से परेशान वामपंथियों ने ही सम्भवत: नाम बदलकर "द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम्" नामक दलितों-पिछड़ों-गरीबों की पार्टी बना ली। कांग्रेस की अलोकप्रियता बढ़ते जाने से नेहरू के सामने मूल समस्या यह खड़ी थी कि वामपंथी विचारधारा से जनमत को विमुख कर कांग्रेस की ओर कैसे मोड़ा जाय। इस परिप्रेक्ष्य में भी भारत-चीन युद्ध को देखा जा सकता है। यहां गांधी की आत्मनिरीक्षण द्वारा शांतिपूर्ण अहिंसक निदान खोजने की मानसिकता की उपेक्षा का भी समय आया।
जब देश पर बाहरी मुसीबतें आती हैं, तो सारी घरेलु मुसीबतें फीकी होती जान पड़ती है। इसी अवसर पर भारत-चीन समस्या खड़ी हुई है। घुसपैठ के आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे। भारत का आरोप था कि चीन ने हजारों एकड़ जमीन हड़पी हुई है। चीन के आरोपों में यह सुना गया कि भारतीय सीमा सैनिक बिना अनुमति लिए तिब्बत में घुस कर अंडे-मुर्गे खरीद लाते हैं, कि भारत के लोगों ने अमुक संख्या में चीन की भेड़ें चुरा ली है, कि चीन के अरूणाचल क्षेत्र पर भारत ने नाजायज कब्जा कर रखा है। भारत ने जोर-शोर से 'मैकमेहन लाइन' की दुहाई दी। मैक मेहन नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने भारत की आजादी के बहुत पहले भारत-चीन सीमा के निधारण के लिए प्रस्ताव के रूप में कागज पर इस रेखा को खींचा था। मगर यह प्रस्ताव चीनी सरकार के सम्मुख कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। पूरे युद्ध क्षेत्र में घूमे हुए ब्रिटिश पत्रकार जार्ज मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज़ चाइना वार' में इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन किया है। अंतत: 1962 के भारत-चीन युद्ध का माहौल बन गया।
दो पड़ोसी देश परम्परा के अनुसार मिल-बैठ कर सीमा रेखाएं तय किया करते हैं। चीन के प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ ने समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को दोस्ताना बातचीत के लिए पेकिंग या रंगून आने का निमंत्रण दिया। जब इसके लिए नेहरू तैयार नहीं हुए, तो चाउ-एन-ला बिना निमंत्रण के दिल्ली चला आया। मगर बात होनी नहीं थी-नहीं हुई। यह घोषणा हुई कि चीन ने भारत पर हमला कर दिया है। युद्ध जारी हो गया। दोस्ताना समझौता वार्ता से नेहरू का किसी बहाने इन्कार करना गांधी की शांति और अहिंसा की प्रक्रिया के विपरीत था, उनकी मूल भावना का हनन था।
पूर्वी क्षेत्र नेफा के युद्ध प्रभरी लेफ्टिनेंट जेनरल बीएम कौल ने अपनी पुस्तक दि अंटोल्ड स्टोरी में लिखा है कि नियमों और परम्परा के अनुसार लड़ाइयां किसी सैनिक उच्चाधिकारी के निर्देशन-नियंत्ण में लड़ी जाती हैं, परंतु यह लड़ाई नेहरू के निर्देशन-नियंत्रण में लड़ी गई थी। यों कहें कि लड़ाई हुई भी और (ठीक से) हुई भी नहीं। संदेह होता है कि इस छद्म उद्देश्य के लिए लड़ाई का नाटक हुआ। इस युद्ध के संदर्भ में कुलदीप नैयर और पीएन हक्सर की पुस्तकें- बिटविन दि लाइंस और हिमालयन ब्लण्डर्स भी द्रष्टव्य है। रहस्य की बात यह भी है कि सारी पुस्तकें नेहरू की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुई, उनके जीवनकाल में नहीं। आज जब सीमा निर्धारण के लिए दोस्ताना वार्ताएं चल रही हैं तो हाय-तौबा मचाने वाली मैकमेहन लाइन और चीन द्वारा हड़पी गयी हजारों एकड़ जमीन की चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ती।
गांधी जी ने भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे देशप्रेमी क्रांतिकारियों के हिंसक समाजवाद को भले ही स्वीकार नहीं किया हो, या साम्यवाद की व्यावहारिकता के कायल नहीं हुए हों, परंतु उनका आंदोलन समाज में व्याप्त गरीबी, विषमता, शोषण सामंतवाद और भेदभाव को प्रभावी ढंग से समाप्त करने के लिए ही था न कि अंग्रेजों से सिर्फ सत्ता छीनने के लिए। उनकी दृष्टि इस पर थी कि किसी कार्य-योजना का लाभ मुख्यत: गरीबों तक पहुंचता है या नहीं। इसके ठीक विपरीत आज सारी सरकारी योजनाओं का लाभ धनकुबेरों को मिलता है। गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ भी मूलत: सत्ताधारियों, ठेकेदारों, अधिकारियो-कर्मचारियों और बिचौलिए दलालों को मिलता है।
कांग्रेस की परवर्ती सरकारों के काल में भारतीय मुद्रावाले नोटों पर तिरस्कृत गांधी का चित्र बैठा देना, या प्रतीक रूप में उन्हें नोटों में कैद करके रखना उनका मजाक उड़ाना है, क्योंकि उनकी सारी नीतियों को अमान्य किया हुआ है। नीतियों के संबंध में जनता को बरगलाने का भी एक हथकंडा है। मुख में राम, बगल में छुरी। पूंजीवादी अन्य देश किसी दांव-पेच की मानसिकता से गांधी को सम्मानित करनाचाहते हैं, तो यह उनकी अपनी (दूषित) राजनीति है।
व्यवसायियों-उद्योगपतियों की संस्था, फिक्की के वार्षिक अधिवेशन 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उलटबांसी की कि बोरोजगारी दूर करने के लिए अधिक से अधिक बड़े उद्योगों की स्थापना आवश्यक है। एक विख्यात अर्थशास्त्री का यह अजूबा बिलायती अर्थशास्त्र है। एक अदना आदमी भी कह सकता है कि मशीनों का काम ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को हटाकर और कम से कम मजदूरों से काम लेकर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करना है, जिसका सीधा लाभ उद्योगपतियों को मिलता है, मजदूरों को नहीं। फिर बेरोजगारी दूर होने की बात कहां से आती है?
फिक्की की ही सभा में मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों से नम्र निवेदन किया कि वे अपने मुख्य कार्यान्वयन अधिकारी को जो करोड़ों का वेतन देते हैं, उसे घटाएं और कमजोर तबकों को भी अपने उद्योगों में नौकरियां दें। उद्योगपतियों ने गहन चिंतन के बाद उनकी दयनीय निवेदन को अस्वीकृत कर दिया। आपने अपने पद का अपमान कराया। लोकसभा-राज्यसभा के माध्यम से समुचित कानून बनाकर उद्योगों को नियंत्रित करने, लाभकारी उद्योगों को भूमिकरों, उत्पादकरों और आयकरों पर दी जाने वाली छूटों-रियायतों को समाप्त करने का अधिकार सरकार को है। लाभकारी उद्योगों को सहायता की जरूरत ही क्यों है? 8 घंटों की शिफ्टों को 6 घंटों की शिफ्टों में बदलकर रोजाना 3 शिफ्ट वाले उद्योगों में 4 शिफ्टें करने से रोजगार बढ़ेगा। सीईओ के वेतन में कटौती करने की भी मजबूरी आयेगी।
महात्मा गांधी मशीनों और वैज्ञानिक विकास के विरोधी नहीं थे। वे स्वयं भी उनका उपयोग-उपभोग यदा-कदा करते ही थे। उनका चरखा-करघा और घड़ी एक एक मशीन ही है। परंतु वे जानते थे कि बड़े उद्योगों (मशीनों) की उत्पादन क्षमता का लाभ गरीबों को दिलाने में न तो समाज कुछ कर सकेगा, और न सरकार में इच्छा-शक्ति होगी। इसलिए उन्होंने लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना की वकालत की। जिन उद्योगों (मशीनों) का विकल्प नहीं है, उन पर तो विवाद ही नहीं है। विवाद तो तब उठता है, जब बड़ी मशीनें बड़े पैमाने पर आदमी को बेरोजगार और बेसहारा बनाती हैं, और सरकार इसका कोई समाधान नहीं ढूंढ पाती।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क्रिय-कलापों में जो भी त्रुटियां हों, परंतु उनके कार्यकाल में भारतीय संविधान के उद्देश्यों में समाजवाद (लाना) शामिल किया गया था। मगर परवर्ती सत्ताधारियों ने देश पर अघोषित, घोर पूंजीवाद लाद दिया। सारे सार्वजनिक उद्योगों को निजी हाथों में बेचना शुरू कर दिया। हजारों-लाखों एकड़ जमीन के मालिकों से आधे-अधूरे मूल्य पर छीन कर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने के लिए विदेशी-स्वदेशी कंपनियों के हाथों सौंप रही है, और भूस्वामियों को विस्थापित अनाथ और बेराजगार बना रही है। इतना भी राजनीतिक शऊर नहीं रहा कि समाजवादी संविधान से समाजवाद शब्द को विलोपित करा दे। क्या कमाल है- संविधान में समाजवाद और देश में पूंजीवाद।
कौन जाने, इंदिरा गांधी और मोहनदास करमचंद गांधी की दिव्य आत्माएं स्वर्ग में क्या महसूस करती होंगी!
1 comment:
gandhijee par bahut achcha lekh aapke blog par aaya hai. gandhi ka sabse adhik durupyog congres ne kiya isliye bahut se mamle par gandhi ke bare me yhrantiyan hain. gandhijee kee ahinsa kee bar-bar charcha kee jati hai par unke saty kee awdharna ko charcha me aane hi nahi diya jata hai. gandhijee khud pahle saty kee baat karte the. ve kahte the kee agar saty sadh gaya to ahinsa apne aap sdh jayegee.gandhi par aapne mau fisad sahi likha hai. aapko bahut-bahut badhayee
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