तटबंधों के सहारे उत्तर बिहार की बाढ़ को नियंत्रित करने की कोशिश कितनी अवैज्ञानिक और आत्मघाती है, यह इस बार साबित हो गया है। हिमालय से आने वाली नदियां अगर सिर्फ पानी लातीं तो शायद ये तटबंध कारगर हो जाते। लेकिन ये नदियां पानी के साथ गाद के रूप में भारी मात्रा में मिट्टी लाती हैं। जब नदियों के किनारे तटबंध नहीं होते थे तो बाढ़ का पानी धीरे-धीरे खेतों में फैल जाता था और वहां उपजाऊ मिट्टी बिछा देता था। बिना किसी रासायनिक खाद के फसल लहलहा जाती थी। इसलिए यहां के खेतों को 'सोनवर्षा' कहा जाता था।
आज भी आपको उत्तर बिहार में अनगिनत गांव मिलेंगे जिनका नाम सोनवर्षा है। तब बाढ़ आतंक का पर्याय नहीं, बल्कि सुख-समृद्धि का कारक होती थी। इसीलिए बहुत से इलाकों में कहावत चलती थी- बाढ़े जीली, सुखाड़े मरली। तब बाढ़ से निपटने के लिए किसी बड़े आपदा प्रबंधन की जरूरत नहीं थी। लेकिन तटबंधों के निर्माण के बाद से नदियों का पेट गाद (मिट्टी) से भरता गया और इनकी जल संवहन की क्षमता घटती गई। इसलिए तटबंधों को आप चाहे जितना ऊंचा और मजबूत करते जाएं, उनका टूटना निश्चित है। नदियों की उड़ाही का काम बड़े पैमाने पर शुरू होना चाहिए। साथ ही सड़कों, रेल लाइनों, नहरों आदि के कारण जहां-जहां जल का अवरोध होता है, वहां-वहां पर्याप्त संख्या में पुलों, साइफनों आदि का निर्माण करना जरूरी है।
उत्तर बिहार के में हजारों साल से उन्नत सभ्यता रही है। बाढ़ ने कभी यहां की सभ्यता को नष्ट नहीं किया। लोगों को नदियों की प्रकृति का ज्ञान था, वे उसके साथ तालमेल बिठाकर चलते थे। नदियां जब धारा बदलती थीं तो लोग उसके अनुसार अपने निवास स्थान बदल लेते थे, क्योंकि उन्हें पता होता था कि नदी कितने दिनों पर किस दिशा में स्थान बदलेगी। नदियों का जल प्रवाह सुगम बनाने के लिए हजारों लोग मिलकर उसके पेटी की खुदाई भी करते थे, जल निकास के नए रास्ते भी बनाते थे। तटबंधों के निर्माण की अवैज्ञानिक प्रक्रिया ने आपदा का पहाड़ खड़ा कर दिया है। इसलिए दीर्घकालिक उपायों के साथ-साथ हमें आपदा प्रबंधन की ठोस व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।
- अनिल प्रकाश
- अनिल प्रकाश
4 comments:
विज्ञान के घमंड ने इस दुनिया का भला जितना किया है, सत्यानाश उससे उससे ज्यादा किया है. यह भी उसी का एक उदाहरण है. हमारी खाऊ-पीऊ प्रशासनिक संस्कृति इसे आगे ही बढाएगी. जनता और खेती चाहे रहे या भाड़ में जाए.
जायज चिंता।
जायज चिंता।
जायज चिंता।
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