Monday, October 29, 2007
आगरा का भूमिगत जल पीने लायक नहीं
आगरा समेत देशभर के प्रमुख शहरों को चिह्नित कर भूजल गुणवत्ता आकलन 2006-2007 नामक राष्ट्रव्यापी अध्ययन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इन शहरों में स्थापित हैंडपंप, ट्यूबवैल व बोरिंग आदि से एकत्र कर गए नमूनों के प्रयोगशाला अध्ययन के बाद केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानिकों ने जो रिपोर्ट तैयार की है, वह ताजनगरी समेत कई अन्य शहरों में इस्तेमाल किए जा रहे भूजल की गणवत्ता पर सवाल खड़े करती है। यहां से लिए गए भूजल के नमूनों में क्लोराइड, नाइट्रेट व फ्लोराइड की मात्रा नुकसानदायक स्तर तक पहुंच चुकी है। रिपोर्ट में इसके लिए आगरा की अव्यवस्थित सीवरेज प्रणाली को काफी हद तक जिम्मेदार माना गया है। इसके अनुसार, महानगर में हर रोज औसतन करीब दो सौ मिलियन लीटर सीवेज खुले में बहा दिया जाता है, जो रिसकर जमीन के नीचे पहुंचकर भूजल को प्रदूषित कर देता है। शहर व आसपास स्थित औद्योगिक इकाइयों से बगैर शोधित किए निकलने वाला रासायनिक प्रवाह भी अंततः रिसकर जमीन के नीचे चला जाता है। रासायनों से फ्लोरोसिस व मानसिक बीमारी आदि होने की संभावना होती है।
रिपोर्ट के निष्कर्षो पर यकीन करें तो ताजनगरी के अधिकांश क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा भूमिगत जल पीने के लायक नहीं है। प्रयोगशाला परीक्षणों ने भी इस बात की पुष्टि की है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा इकट्ठे किए गए 50 प्रतिशत से अधिक नमूनों में क्लोलोराइड की मात्रा बहुत र्यादा है। आगरा के 82 प्रतिशत से अधिक नमूनों में क्लोराइड की मात्रा भी अत्यधिक है। इसी तरह नाइट्रेट की मात्रा भी हानिकारक सीमा से अधिक पाई गई। रिपोर्ट में उजागर हुए आंकड़ों के मुताबिक, आगरा के भूमिगत जल के कुल नमूनों में से 95 प्रतिशत से अधिक में कुल घुलनशील रसायनों की मात्रा जरूरत से र्यादा है, जो जन स्वास्थ्य की दृष्टि से नुकसानदायक है। यह कई जानलेवा बीमारियों को दावत देने वाला है। जिन अन्य प्रमुख शहरों की रिपोर्ट तैयार की जा चुकी है। मेरठ और लखनऊ में पानी का स्तर मानक के अनुसार बताया गया है।
Sunday, October 28, 2007
राष्ट्र संघ का अहिंसा प्रेम!
पहली-पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में गांधी जयंती पर 'अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्य पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो सका। राष्ट्र संघ के महासचिव वान की मून या भारत की आमंत्रित प्रतिनिधि सोनिया गांधी या किसी अन्य के भाषणों से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ, कि किसी ने अपने जीवन में या देश में अहिंसा के रास्ते पर चलने का संकल्प किया हो। श्री मून के यह चिंता व्यक्त करने का कोई अर्थ नहीं है कि, परमाणु अस्त्र अप्रसार की समस्या पर अन्य देशों से कोई सार्थक सहयोग नहीं मिल रहा। यह तो अरण्य रोदन के जैसा प्रतीत होता है।
भारत की सोनिया गांधी ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आतंकवाद से निपटने और परमाणु अस्त्र प्रसार पर अंकुश में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सामूहिक रूप में विफल रहा है और आतंकवाद पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है। उन्होंने विरोधियों को मीठी और तर्कपूर्ण बातों से समझाने-बुझाने की वकालत की। जबकि अपने ही देश में 'स्पेशल एकनामिक जोन' के नाम पर गरीबों से जबर्दस्ती जमीन छीने जाने का विरोध होता है, तो समझाने के बदले, गोलियों से भूना जाता है। तो 'विश्व अहिंसा दिवस' मनाने का उद्देश्य क्या यही था, कि विरोधियों, दुश्मनों और आतंकवादियों को बताया जाय, कि तुमलोग अहिंसा के रास्ते पर चलो, क्योंकि यह विश्व-विख्यात महात्मा गांधी का उपदेश है। अन्यथा तुम्हें तोपों से उड़ा दिया जायेगा ? फिर अहिंसा दिवस मनाने का भला क्या अर्थ है?
अहिंसा शब्द जितना सरल लगता है, उसका अर्थ उतना ही गहन और गूढ़ है। मनुष्य मात्र का शत्रु भयानक हत्यारा ‘अंगुलिमाल’ के सम्मुख महात्मा बुद्ध जब निर्भीक भाव से आये, तो उन्होंने यही नहीं कहा, कि ‘अहिंसा परमो धर्म’, जबकि इस सनातन उक्ति में गलत कुछ भी नहीं है। उसे पापी भी नहीं कहा। जिन्होंने उसे अपनी मर्मस्पर्शी मीठी युक्तियों से प्रभावित और प्रेरित करके निरीहों की हत्या की निरुपयोगिता और व्यर्थता का बोध कराया। अंगुलिमाल की चिंतनधारा तत्क्षण बदल गयी। जीवन भर करुणा, प्रेम, दया, क्षमा का उपदेश देने वाले महात्मा बुद्ध ने उससे ‘अहिंसा’ अपनाने की बात नहीं कही। तिब्बती बौद्ध लोग याक (एक पालतू पशु) का थुथना कस कर बांध देते हैं और जब वह दम घुंटकर मर जाता है, तो वे उसका मांस बड़े ही प्रेम से खाते हैं। वे उसे हिंसा नहीं मानते, क्योंकि याक से उनकी दुश्मनी नहीं है, बल्कि प्रेम है। हत्या तो दुश्मनों की हुआ करती है। वे लोग प्रेम, करुणा, दया, क्षमा के सागर महात्मा बुद्ध के अनुयायी हैं।
असाध्य रोगों से पीडि़त छटपटाती उस बछिया का उल्लेख भी सुमीचीन होगा, जिसकी पीड़ा से द्रवित महात्मा गांधी ने उसे जहर की सुई से मौत की मीठी नींद सुलाने की अनुमति दी थी। फिर यह अपनी-अपनी दृष्टियों पर निर्भर है कि कौन किसको हिंसा मानता है, और कौन किसको अहिंसा मानता है। ‘अहिंसा’ एक नकारात्मक बोध का शब्द है, किसी सकारात्मक बोध का नहीं। इसके भिन्न-भिन्न अर्थ किस-किस युग में कहां-कहां तक व्याप्त हो सकते हैं, कहना कठिन है। अनेके हिंसकों को पता भी नहीं कि वे हिंसक भी हैं, या कहीं कोई हिंसा भी हो रही है। चूंकि हिंसा का अर्थ सिर्फ हत्या नहीं है, बल्कि जीवों को अनेक प्रकारों से पीडि़त-प्रताडि़त करना भी है, कष्ट देना भी है। इसलिए अहिंसा का भी कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक प्रकार भी निर्धारित नहीं हो सकता। महात्मा गांधी ने ‘अहिंसा’ शब्द की व्यापकता को देखते हुए, माना कि वही अहिंसा साधनीय है, जिसकी उपयुक्तता अनुभव जन्य सत्य से सिद्ध हो चुकी है। इसलिए उन्होंने ‘सत्य और अहिंसा’ का एक साथ प्रयोग किया। परंतु राष्ट्र संघ ने सत्य की उपेक्षा की और मात्र ‘अहिंसा दिवस’ मनाया।
यह विश्व विदित है कि अमेरिका ने अपने पिठ्ठू देशों के साथ मिलकर इराक पर भयानक हमला किया, जबकि जांच में वहां परमाणु अस्त्र होने का कोई सबूत नहीं मिला और राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद ने हमले के लिए कोई अनुमति नहीं दी थी। जिनके हाथ-रक्त रंजित हैं, वे देश-दुनिया को बरगलाने के लिए ‘अहिंसा’ का नकली राग अलापते हैं। कहते हैं, कि मिस्टर बुश के खानदान की ओसामा बिन लादेन से ‘दांत कटी रोटी’ वाली दोस्ती थी। साझा व्यवसाय चलता था। फिर क्या बात हुई, कि एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन बैठे? किसी से विश्वासघात करना भी हिंसा है। हिंसा से उपजी ‘प्रतिहिंसक’ नहीं, बल्कि स्वयं प्रथम ‘हिंसक’ बताता है।
अति उन्नत मशीनें मानवीय बुद्धि से नि:सृत विज्ञान के बड़े अनोखे चमत्कार हैं, जो मानव जाति को श्रम से निवृत्ति दिलाकर सुख और आनंद के चरम उत्कर्ष पर पहुंचाने की क्षमता रखती हैं। परंतु मानव स्वार्थ के वशीभूत होकर उनका दुरुपयोग करता है। उन्हीं मशीनों से बहुत बड़े समाज का शोषण और उत्पीड़न करता है। बेरोजगारी फैलाकर आदमी को गरीबी, भूखमरी और आत्महत्या के दानव के हाथों में ला पटकता है। मोहम्मद साहब या ईसा मसीह या गौतम बुद्ध या महात्मा महावीर को जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए हुआ। उसी प्रकार वैज्ञानिकों की बुद्धि को भी ईश्वरीय प्रेरणा से भिन्न-भिन्न आविष्कारों की झलक आती है। उनके आविष्कार सम्पूर्ण मानव जाति के हित के लिए हैं। परंतु आज ‘अयम् निज: परोवेति’ की क्षुद्रता वाले चालबाज और धनसम्पत्ति के स्वामी, इन आविष्कारों को पूंजी के हथियारों से लूट लेते हैं, और स्वलाभ के लिए मशीनों को परोक्ष हिंसा का साधन बना लेते हैं।
यही हाल अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों और विशेष कृषि क्षेत्रों का है। किसानों से जमीन औने-पौने भाव में छीन कर विस्थापित और पीडि़त किया जा रहा है। कृषि भूमि से उन्हें वंचित करना हिंसा है। उस उत्पीड़न और हिंसा के निस्तार के लिए खुले मन से गरीबों-असहायों के हित में कोई वास्तविक अहिंसा दिवस क्यों नहीं मनाया जाता?
Tuesday, October 16, 2007
आत्महत्या पर भी दिल नहीं दहलता
गुलबर्ग, कर्नाटक में फरवरी माह में छह बेरोजगार नवयुवकों ने एक समारोह के दौरान आत्महत्या की कोशिश की। स्वर्ण ग्रामोदय परियोजना का उद्घाटन करने के लिए कर्नाटक के श्रीनिवास सरदागी यहां पहुंचे हुए थे। 24 फरवरी को राष्ट्रपति कलाम के कार्यक्रम में पहुंचते ही इंड्रस्ट्रियल ट्रेनिंग कोर्स (आईटीआई) कर चुके छह युवक नौकरी की मांग करते हुए जमकर नारेबाजी की। वे चाह रहे थे कि राष्ट्रपति उनकी पीड़ा सुनें और एक बेरोजगार युवक की बेचैनी महसूस करें। इस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी भी गांव में मौजूद थे। अपनी बात राष्ट्रपति तक न रख पाने के बाद युवकों ने वही जहर पी लिया। बाद में डॉक्टरों ने उन्हें बचा लिया।
इस खबर को मीडिया ने तब्बजो नहीं दी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुप्पी साध लेने की पूर्ववत योजना पर डटे रहना उचित समझा। प्रिंट मीडिया ने भी इस खबर को सार-संक्षेप में ही जगह दी। दरअसल, आत्महत्या अपने आप में गंभीर मसला है। कायदे से कहा जाय तो आत्महत्या एक जुर्म है। यहां सवाल उठता है कि आखिर देश की फिजां में क्या घुल गया है कि देश के बच्चे, युवक, युवतियां और किसान मरने को मजबूर हो रहे हैं? दिक्कतों से जूझते-जूझते रास्ता नहीं खोज पाने की स्थिति में ऐसा करने की बात तो समझ में आती है। परंतु आत्महत्या अगर योजनाबद्ध तरीके से या यूं कहें कि विरोध के तौर पर प्रकट होने लगे, तो इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को संवेदना के स्तर पर अकेलापन महसूस होने लगता है। उसे ढाढस बंधाने वाला कोई कंधा नहीं हासिल होता है। समाज में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दिक्कतों के बढ़ने से आदमी अकेला तो निश्चित तौर पर होता चला जा रहा है। साथ ही देश में राजनीतिक स्तर पर भी संवेदनशीलता में भारी गिरावट आयी है। अन्यथा 50 या 60 के दशक में इतनी बड़ी घटना होती तो कम से कम राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन ही जाती। इसे एक-दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। याद हो, लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्रित्व काल में ट्रेन दुर्घटना हुई थी। उस हादसे में लोगों की जानें गयी थी। उन्होंने घटना की जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। दरअसल उस समय राजनीति का मतलब समाज सेवा हुआ करता था।
दूसरे उदाहरण से आप सास्कृतिक बुनावटों के आधार पर तात्कालिक समाज को समझ सकेंगे। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन अपनी अमर कृति मधुशाला का पाठ मंचों पर अक्सर किया करते थे। इसी सिलसिले में वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे। रास्ते में ट्रेन रुकी तो एक युवक दौड़ता हुआ उनसे मिलने आया। दूसरे दिन बच्चन जी को पता चला कि उस युवक ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने वाला युवक प्रेम में हारा हुआ था। बच्चन की कविता में उसे अपनी पीड़ा का स्वर सुनाई पड़ा था। आपको मालूम हो कि इस घटना के बाद बच्चन ने लंबे समय तक मंच पर कविता पाठ नहीं किया। आज राजनीति अधिकांश लोगों के लए सत्ता हासिल करने का एक औजार मात्र है। अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री आम जनता को यह सलाह दे बैठते हैं - 'महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। इसलिए देश के लोगों को कठिनाइयों के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए।' दरअसल, आत्महत्या जैसे गंभीर मसले की पड़ताल समाज में हो रहे चहुमुखी क्षरण के आधार पर की जानी हिचाए, क्योंकि सामान्य रूप से कोई मरना नहीं चाहता है। भारत में रोजगारहीनता से पीडि़त युवक और युवतियों को भी इससे निकल पाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं पर तो देश को उद्वेलित हो उठना चाहिए था, लेकिन ऐसी कारूणिक घटनाओं पर राष्ट्रीय बहस तक भी आयोजित नहीं हो पाती है। सकल विकास दर और सूचकांक में ऐतिहासिक उछाल हासिल करने की बातें, यहां झूठी और फरेबी लगने लगती है। देश के विकास का मतलब कुछ लोगों का विकास कतई नहीं हो सकता है। देश के विकास का मतलब तो यह होना चाहिए कि विकास की धारा समाज के अंतिम श्रेणी के लोगों तक पहुंचे। नई आर्थिक उदारीकरण नीति के लागू होने के बाद आत्महत्या जैसी घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हुआ है। दुख की बात तो यह है कि देश के कृषि मंत्री किसानों को आय का दूसरा रास्ता ढूंढने की सलाह दे रहे हैं। ऐसी संवेदनहीन परिस्थितियों से समाज को बचाने के लिए पूरे नागरिक समाज को सोचने को मजबूर होना पड़ेगा।
Sunday, October 14, 2007
पानी की लड़ाई में पिस रहे प्रवासी परिंदे
कीठम में पानी जरूरत से ज्यादा..
पानी की लड़ाई में प्रवासी परिंदे पिस रहे हैं। भरतपुर के केवलादेव नेशनल पार्क में सूखा पड़ गया है। राजस्थान के करौली में पांचना डैम बनने के बाद यह समस्या आई है। दूसरी ओर आगरा के कीठम पक्षी विहार में जरूरत से ज्यादा पानी जमा है। दोनों ठिकाने पक्षियों के अनुकूल नहीं हैं। ठंड के साथ ही हजारों की तादाद में एशियाई परिंदों के आगमन का समय अब शुरू होने वाला है। भरतपुर में पानी न मिलने पर वे कीठम के सूर सरोवर पहुंचते हैं। लेकिन यहां वन विभाग और सिंचाई विभाग के बीच चल रही तनातनी ने पक्षियों के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी है। कम पानी में रहने वाले (वैडर) पक्षी को कीठम में भोजन की मुसीबत उत्पन्न हो गई है।
पिछले वर्ष मात्र 80 हजार परिंदों ने कीठम पक्षी विहार में ठिकाना बनाया था। यहां 135 प्रजाति के एशियाई पक्षी प्रवास करते हैं। इस बार भी पर्यावरणविद् निराश दिख रहे हैं। सूर सरोवर में सिंचाई विभाग पानी कम करने को तैयार नहीं है। दरअसल, सरोवर में दिल्ली के ओखला नहर से पानी आता है और कीठम से मथुरा रिफाइनरी और किसानों को भी पानी आपूर्ति की जाती है। पक्षी विहार की चिंता किए बगैर हमेशा पानी बनाए रखने के लिए सिंचाई विभाग सरोवर को पानी से भरा रखते हैं। वन विभाग के रेंज ऑफिसर आरबी उत्तम के अनुसार इस वक्त यहां 22 फुट पानी जमा है। जबकि पक्षियों के रहने के लिहाज से 15 फुट से ज्यादा पानी नहीं रहना चाहिए। इससे सरोवर के किनारे के हिस्से में दलदल बना रहता है। इसी जगह पर ज्यादातर कीड़े-मकोड़े, घोंघे, सीप, झिंगुर, छोटी मछलियां, घास आदि मिलते हैं। परिंदे इसे खाकर जिंदा रहते हैं। यह ठीक उसी प्रकार होता है जिस तरह खेतों में हल जोतते समय किसान के पीछे-पीछे पक्षी घूमते रहते हैं। वे यहां कीड़े खाते हैं।
सरोवर में ज्यादा पानी रहने से परिंदों के पर भीग जाते हैं। वन विभाग ने पर सुखाने के लिए हैपिटैट (पानी में बना स्थल क्षेत्र) बना रखा है। लेकिन सिंचाई विभाग ने सूर सरोवर में इतना पानी डाल दिया है कि हैपिटैट भी डूब चुके हैं। किनारे का घास भी पानी में चला गया है। 1991 में इस विहार को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया, लेकिन यह अब तक कागजों पर ही संरक्षित है। बर्मा, पाकिस्तान, चीन, साइबेरिया आदि देशों से आने वाले पक्षियों को काफी दिक्कतें होती है। फिलहाल करीब 20 हजार देशी पक्षियों ने ठिकाना बनाया हुआ है। पिछले वर्ष करीब छह सौ विदेशी सैलानियों ने कीठम में पक्षियों को देखने के लिए भ्रमण किया था।
दूसरी ओर राजस्थान के करौली जिले में पांचना डैम बनने के बाद यहां के निवासी पानी छोड़ने नहीं देते हैं। इससे भरतपुर का केवलादेव नेशनल पार्क केवल मानसून पर निर्भर रह गया है। लेकिन यहां बारिश इस लायक नहीं होती है कि पक्षी विहार में पानी जमा हो और प्रवासी परिंदों का ठिकाना बन सके।
Saturday, October 6, 2007
तटबंधों के सहारे बाढ़ रोकने की आत्मघाती कोशिश
- अनिल प्रकाश
Thursday, October 4, 2007
गाँव-मोहल्लों में दिखेगी विधानसभा में विधायकों की कारगुजारी
उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में विधान सभा की एक मिनट की कार्रवाही में तकरीबन एक लाख रुपए से अधिक खर्च होते हैं। हंगामे की वजह से कई बार पूरा सदन स्थगित करना पड़ता है। पूरे देश में इस पर चिंता व्यक्त की जा रही है। श्री राजभर कहते हैं कि भारी मन से उन्होंने सदन की कार्रवाही की सीडी जनता के बीच प्रदर्शित करने का फैसला किया है। उनका मानना है कि हंगामे का नुकसान विपक्ष को ही ज्यादा उठाना पड़ता है। प्रश्नकाल में विपक्ष के विधायक ही अधिकतर सवाल उठाते हैं। जन समस्याओं पर सत्तापक्ष को घेरने का यही मौका होता है। लेकिन, बार-बार विपक्ष खुद अपना बहुमूल्य मौका खो देता है। आगरा प्रवास के दौरान विधान सभा अध्यक्ष ने कहा कि फिलहाल सदन में अधिकतर विधायक युवा हैं। उन्हें सदन की मर्यादा का प्रशिक्षण दिया गया है।प्रदेश में श्री राजभर के इस कदम का स्वागत किया जा रहा है। हालांकि एक सवाल उठता है कि ऐसा प्रयास कहीं विधायकों के शक्ति प्रदर्शन का माध्यम न बन जाय।