सस्ते अनाज के अधिकार पर हाय तौबा क्यों....
- सन्मय प्रकाश
देश की 63.5 फीसदी आबादी को सस्ते अनाज का अधिकार मिलने वाला है। अब कोई भूखा ना रहे इसलिए फूड सिक्योरिटी बिल लागू होने के मध्यम चरण में है। इसके लागू होने के बाद सरकार पर 3.5 लाख करोड़ रुपए का बोझ बढ़ेगा। अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर इतना धन कहां से आएगा? मंदी के दौर में इसके बोझ से आर्थिक समस्या तो नहीं बढ़ेगी? 40 हजार करोड़ रुपए के खर्च वाली मनरेगा योजना के बाद इतना बड़ा आर्थिक भार क्या जरूरी है? बेहद सस्ते दर में खाना देने से अनाज संकट बढ़ेगा?
गौर फरमाने की जरूरत है कि इन सवालों को उठाने वाले कौन हैं? ये हैं देश के कृषि मंत्री, उद्योग जगत के बड़े कारोबारी और अर्थशास्त्री। ऐसे कुछ लोग खुल कर बोल रहे हैं, तो कुछ दबी जुबान में। ये वही लोग हैं, जिसके दबाव में पिछले वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार ने तमाम तरह की कर छूट, रियायतों और प्रोत्साहनों के तौर पर 4.6 लाख करोड़ रुपये उद्योगपतियों को बांट दिए। सरकार को मिलने वाला खजाना उद्योगपतियों की तिजोरी में चला गया। जबकि इसी दौरान गरीबों और किसानों के नाम पर सरकार ने केवल 1.54 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है। मनरेगा का बजट भी फीका पड़ गया। गरीबों पर खर्च की गई रकम उद्योगपतियों पर लुटाए गए धन से बेहद कम है। इसके बावजूद मंदी का बहाना बनाकर योजना आयोग, रिजर्व बैंक, तमाम अर्थशास्त्री और उद्योगपति इस सब्सिडी पर को कम करने पर दबाव बनाते रहे।
अब फूड सिक्योरिटी बिल पर भी इन लोगों की नजरें टेढ़ी है। गरीबों से जुड़ा मामला होने की वजह से 3.5 लाख करोड़ खर्च को लेकर आर्थिक संकट का हव्वा खड़ा किया जा रहा है। यदि टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला न होता तो लाखों करोड़ों रुपए सरकार के खजाने में होते। उद्योगपतियों पर गैर जरूरी टैक्स छूट, रियायतों और प्रोत्साहनों को बंद कर सरकार बेहद आसानी से जरूरी रकम इकट्ठा कर सकती है। जिस देश के गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं, वहां सस्ता अनाज लोगों को मुहैया करवाना सत्ता का दायित्व है। मनरेगा ने 100 दिन के रोजगार की गारंटी देकर अति गरीबों को जीने का सहारा दिया। लेकिन यह भी लाखों करोड़ों रुपए अपनी तिजोरी में डालने वालों को खटक रहा है।
भोजन के अधिकार का यह प्रस्तावित कानून वित्तमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह के पास सितंबर, 2009 से है। तब से इसे टाला जा रहा था। कांग्रेस के अंदर ही इसे लेकर द्वंद्व था। उद्योगपति समर्थित एक धरा इसे नहीं लाना चाह रहा था। तो दूसरी तरफ था सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाला राष्ट्रीय सलाहकार समिति। दरअसल, सोनिया गांधी का ड्रीम प्रोजेक्ट था, इसलिए फूड सिक्योरिटी बिल पर तमाम द्वंद्व के बावजूद कैबिनेट ने पास कर दिया है। यह योजना पेंडिंग होने की वजह से ही कुछ महीने पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश को दरकिनार कर दिया था, जिसमें गोदाम में सड़ रहा अनाज गरीबों में बांटने को कहा गया था। दरअसल, उस वक्त सरकार नहीं चाहती थी कि इसका श्रेय कांग्रेस के अलावा किसी दूसरी संस्था पर जाए। यह बिल चुनावी जरूर है, लेकिन इससे जनता को फायदा ज्यादा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार मुक्त वितरण प्रणाली कैसे बनाई जाएगी।
फूड सिक्योरिटी बिल पर अमल के लिए खाद्यान्न की जरूरत मौजूदा के 5.5 करोड़ टन से बढ़कर 6.1 करोड़ टन पर पहुंच जाएगी। फिलहाल बफर स्टॉक मिलाकर तीन साल तक के लिए अनाज देश में मौजूद है। लेकिन भविष्य में जरूरतें बढेंगी। इसके लिए सरकार को कृषि पर ध्यान देना होगा। कृषि को अधिक लाभकारी व्यवसाय के रूप में बदलने के लिए नीति बनानी होगी। अधिग्रहित हो रही उपजाऊ भूमि के लिए विकास का नजरिया बदलना होगा। इस वक्त किसानों को सस्ती खाद उपलब्ध कराने के लिए उर्वरक कंपनियों को 55,000 करोड़ रुपये की सरकारी मदद मुहैया कराई गई है। लेकिन यह मदद किसानों तक कम ही पहुंच पाती है। किसानों को ब्लैक में महंगी कीमत पर उर्वरक खरीदना पड़ता है। बहुत से किसान रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं। उन्हें तो सब्सिडी का लाभ नहीं मिल पाता है। इसलिए सबसिडी उर्वरक कंपनी न देकर सीधे किसानों को देनी चाहिए। ताकि सब्सिडी के नाम पर रासायनिक खाद कंपनियों का गोरखधंधा बंद हो।बहरहाल, बिल का लाभ पाने वाली ग्रामीण आबादी की कम से कम 46 प्रतिशत आबादी को प्राथमिकता वाले परिवार की श्रेणी में रखा जाएगा, जो मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ये गरीबीरेखा से नीचे के परिवार कहे जाते हैं। शहरी क्षेत्रों की जो आबादी इसके दायरे में आएगी उसका 28 प्रतिशत प्राथमिकता वाली श्रेणी में होगा। विधेयक के तहत प्राथमिकता वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति सात किलो मोटा अनाज, गेहूं या चावल क्रमश: एक, दो और तीन रुपए किलो के भाव पर सुलभ कराया जाएगा। यह राशन की दुकानों के जरिए गरीबों को दिए जाने वाले अनाज की तुलना में काफी सस्ता है। मौजूदा पीडीएस व्यवस्था के तहत सरकार 6.52 करोड़ बीपीएल परिवारों को 35 किलो गेहूं या चावल क्रमश: 4.15 और 5.65 रुपए किलो के मूल्य पर उपलब्ध कराती है। सामान्य श्रेणी के लोगों को कम से कम तीन किलो अनाज सस्ते दाम पर दिया जाएगा, जिसका वितरण मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य के 50 फीसद से अधिक नहीं होगा। वर्तमान में गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के 11.5 प्रतिशत परिवारों को कम से कम 15 किलो गेहूं या चावल क्रमश: 6.10 और 8.30 रुपए किलो के भाव पर उपलब्ध कराया जाता है।